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________________ १६२ तत्तु नास्ति. सर्वत्र संस्कारपरार्शात् । उपनयन संस्कारः सर्वत्र परामृश्यते, "तं होपनिन्ये, अधीहि भगव इति होपससाद, तान् हानुपनीयेत्” इत्यादि प्रदेशेषूपनयन पूर्वकमेव विद्यादानं प्रतीयते । शूद्रम्य तु तदभावाभिलापात्, "चतुर्थ एक जातिस्तु शूद्र' इति "नशूद्रे पातक किंचिन्न च संस्कारमहति" इति शूद्रस्य संस्कार निषेधात् । चकारान्न “शूद्राय मतिं दद्यात्" इति निषेधः । अब कहते हैं कि-शूद्र की ब्रह्मविद्या में अधिकार की थोड़ी भी कल्पना, नहीं कर सकते । ब्रह्मविद्या की उपासना के लिए सर्वत्र संस्कार का परामर्श किया गया है उपनयन संस्कार की अर्हता का परामर्श सर्वत्र मिलता है। "तं होपनिन्ये, अधोहि भगव" इत्यादि श्रुतियां उपनयन के बाद ही विद्या दान का उपदेश देती हैं। शूद्र के लिए उपनयन संस्कार का निषेध भी करती हैं- "चतुर्थ एक जाति" 'न शूद्र पातकं किंचित्" इत्यादिमें शूद्रों के संस्कार का निषेध किया गया है। “शूद्र को विद्या मत दो" ऐसा स्पष्ट निषेध भी है। तदभाव निर्धारिणे च प्रवृत्त ।१।३ ३७॥ इतश्च न शूद्रस्य सर्वथाधिकारः, तद भावनिर्धारणे शूद्रत्वाभावनिर्धारण एव गुरुशिष्यभाव प्रवृत्तेः । “सत्यकामोह जाबाल" इत्यत्रगौतमः सत्यकाममुपनिन्ये । नैतद् ब्राह्मणो विवक्त मईतीति सत्यवचनेन शूद्राभावं ज्ञात्वैव । चकार एवार्थे । चकारेण निर्धारणमुभयज्ञानार्थम् । वर्मत्वं शूद्रभावंच तस्मान्न शूद्रस्याधिकारः। सत्यकाम जाबाल, महर्षि गौतम के पास ब्रह्मविद्या, की प्रार्थना करने गया, ऋषि ने उससे वर्ण पूछा, उसने कहा कि मेरी माँ को स्पष्टतः यह ज्ञात नहीं है कि मैं किसका बालक हूं क्यों कि-मेरी मां अनन्य सेविका भाव से जीवन निर्वाह करती रही है, सत्यकाम की इस सत्यवादिता से महर्षि ने निश्चय कर लिया कि यह बालक ब्राह्मण तेज से ही उत्पन्न है तभी इसने अपनी उत्पत्ति को नहीं छिपाया । इसी आधार पर उन्होंने उसे ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया । इस प्रसंग से भी शूद्र के अधिकार की बात स्पष्ट हो . जाती है। उसे ब्राह्मणत्व का निर्णय होने पर ही उपदेश दिया गया। ...
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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