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________________ १७१ मायमर्थो दूष्यते, किंतु किचिदन्यदस्तीति न नकार प्रयोगः । तदाह-प्राविक भूतस्वरूपः, स्वाप्यसंपत्त्योर्भगवदाविर्भावो जीवे भवति । नृसिंहोपासकस्य नृसिंहाविर्भाववत् । ब्रह्मण उपदेश समय भगवदाविर्भावात् । सर्वत्र स्वात्मानं पश्यग्निन्द्रऽपि तथैवोपदिष्टवान् प्रजापतिः अन्यथा प्रतिबिम्बादावमृताभय' वचनं मिथ्या स्यात् । इन्द्र त्वाविर्भावाभावात् प्रजापत्यसन्निधाने विपरीत पश्यति । अतस्तावन्मात्रदोषपरिहारायान्य थोपदेशः । स्वप्नादिषु तथा भगवदाविर्भावात् तथावचनम् । तस्मादुभयमपि भगवत प्रकरणमेव । एवम न्यत्रापि भगवदावेशकृता भगवधर्माभिलाषा ग्राह्याः, तस्माद् दहरः परमात्नव । उक्त प्रकरण के बाद के प्रजापति के प्रकरण से भी ब्रह्मत्व की पुष्टि होती है । उस प्रकरण में दिव्य चक्ष में प्रतीयमान जीव को ही अमृत अभय रूप से निरूपण किया गया है। उक्त प्रकरण में प्रतिबिम्बात्मा संबंधी उपदेश है, उसी प्रतिविम्बात्मा में जाग्रत्साक्षित्व, स्वप्नसाक्षित्व, सुषुप्ति साक्षित्व का निरूपण करके, सर्वत्र उसकी अमृतरूपता का निरूपण करके, इन अवस्थाओं की निस्तस्वता बतलाकर समाधि अवस्था में जीव के अमृतत्व रूप को मनस्थित बतलाया गया है। इससे निश्चित होता है कि जीव भीउक्त विशेषतामों वाला है । उसके स्वरूप का परामर्श भी किया गया है। ऐसा संशय उपस्थित कर तु शद से उसका निराकरण करते हैं । उक्त संशय को काट नहीं रहे हैं इसलिये नकार का प्रयोग नहीं किया, किन्तु इस वर्णन का कुछ और ही तात्पर्य है इसलिये तु शब्द से उसकी ओर इंगन करते हैं । कहते हैं कि स्वप्न और संपत्ति में, जीव में भगवान का प्राविर्भाव होता है । जीव के स्वरूपाविर्भाव की बात नहीं है। जैसे कि-तसिंहोपासक में नृसिंह स्वरूप का माविर्भाव होता है तथा ब्रह्म संबंधी उपदेश देते समय वक्ता में भगवदाविर्भाव होता हैं। सब जगह अपने को प्रतिबिम्ब रूप से देखते हुए इन्द्र को, यही बात प्रजापति ने बतलाई थी। यदि ऐसा अर्थ महीं मानेंगे तो प्रतिबिम्ब आदि के प्रमतत्व और अभयत्व की बात मिथ्या हो जायेगी । प्रजापति की अनुपस्थिति में इन्द्र ने, अपने में आविर्भाव के में होने से विपरीत ही अनुभव किया। केवल इसी बात के परिहार के लिए, अन्यथोपदेश दिया गया है । स्नप्न मादि अवस्थाओं में और स्वाभाविक अवस्था में भी देहादिविसबल भाव की बात बसलाई गई है, स्वप्वावस्था
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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