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दिवाक्यविरोधश्च । अतो म जीवस्तादृश इत्यभिप्रायेणाहे असंभवात् । नहि जीवे जगदाधारस्वादिकं संभवति । नहि परामर्शमात्रेण सर्ववेदांत विरुद्ध कल्पयितुं शक्यते । परामर्शस्थाप्यार्थत्वमुत्तरत्र वक्ष्यति । तस्माद् दहरों जीवो न भवितुमर्हति । वाक्पार्थो यथोपद्यते, तथोत्तरत्र वक्ष्यते । ब्रह्मरवेकमेव, नोभयमिति निश्चयः।
संप्रसाद, जीव की सुषुप्ति अबस्था का स्वरूप है परमात्मा के संबंध से अपने वास्तविक स्वरूप की निष्पति की जो बात कही गई है उससे तो जीव की ही उक्त विशेषतायें समझ में आती है । इस प्रसंग में स्वरूष प्राप्ति की बात परमात्मा के लिए कही गई हो ऐसा तो संभव नहीं है। इससे निश्चित होता है कि यह सारा प्रकरण जीव परक ही हो सकता है, वह जीव ही इस प्रकरण का उल्लेख तत्व है । इस मत पर स्वमत कहते हैं कि - नहीं, जीव उक्त विशेषताओं वाला नहीं हो सकता, इस प्रकरण में जितनी भी विशेषतायें दिखलाई गई हैं वह जीव के सामर्थ्य के विरुद्ध हैं यदि बह्य पीर जीव दोनों को एक ही रूप माने तो फिर फिर उनकी भिन्नता महीं मानी जा सकती, जब कि श्रुतियों में उनकी भिन्नता का स्पष्टोल्लेख है, "कृतं पिबन्ती" में दो की जो वर्णन किया गया है, अभिन्न मानने पर उसका समाधान कैसे होगा ! जीव में जगदाधारकता प्रादि विशेषतायें संभव नहीं हैं । केवल परामर्श के आधार पर समस्त वेदांत वाक्यों के विपरीत कल्पना नहीं की जा सकती । परामर्श का कुछ दूसरा ही अर्थ है इसे आगे कहेंगे इसलिए दहर, जीव नहीं हो सकता । वाक्यार्थ की संगति कैसे होगी, उसे भी आगे बतलावेंगे । ब्रह्म एक ही है, दो नहीं। .
उसराच्चेदाविभूवस्तरूपस्तु ॥३॥१९॥
उत्तरात् प्रकरणात्, प्रोजापत्यात, तत्र हि दिव्यचक्षुषि मनोरूपे प्रतीयमानों जीव एवऽमृताभयरूपो निरूपितः । तस्यैवोदशरावे जाग्रत्साक्षित्वं, तदनु स्वप्नसाक्षित्वं, तदनु सुषुप्तिसाक्षित्वं निरूप्य, सर्वत्र तम्यामृतरूप. स्वमेव निरूप्य, प्रस्थानामतात्त्विकत्वमुक्त्वा, समाध्यवस्थायां मनसि तमेवजी तादृशं प्रतिपादयति । अतो जीवोऽपि वस्तुतस्तादृश एव इति, प्रकृतेऽपि परापनि म एव इति चेत् । एषमासक्य परिहरति तु शब्देन ।