SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 236
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मदर्शनात् तत्र प्रकरण ब्रह्मण इति निश्चीयते । एवंमिहापि जीवस्यासाधारणधर्मदर्शनात् जीव प्रकरणमिति कुतो न निश्चीयते । निश्चिते तुं तस्मिन् प्रकाश तुल्यत्वादयो धर्माजीवस्यैव भविष्यन्ति नान्यस्येत्यभिप्रायेणाह, ईतरपरामर्शात् सः । इतरो जीवस्तस्यपरामर्शः । उपक्रमोपसंहारमध्यपरा मर्शः संदिग्धे निर्णयः तत्रात्मविदः सर्वान् कामानुक्तं वा मध्ये -"प्रथ य एष संप्रसादोऽस्माच्छरीरात् समुत्थाय परंज्योतिरुपसंपद्य स्वेनरूपेणाभिनिष्पधते एष पात्मेति हो वाचैतदमृतमभयम्" इत्यादि मध्य-अग्रे “य प्रात्मा स सेतुः" इति । ब्रह्म ही ऐसे गुणों वाले हैं, जीव वैसे गुणों वाला नहीं हैं, ऎसा, किसी शास्त्र प्रमाण से तो सिद्ध कर नहीं सकते । ब्रह्मवाद में एक श्रुति के आधार पर ही परमात्मा के दोनों रूपों (जीव और ब्रह्म) का उल्लेंग्व होता है । जैसे कि--ब्रह्म के असाधारण गुणों के आधार पर उस प्रकरण को ब्रह्म परक निश्चय करतें हैं, वैसे ही जीव के असाधारण धर्म मानकर इस प्रकरण को जीव परक भी निश्चय कर सकते हैं। जब ऐसा निश्चय कर लें तो, आकाशतुल्यता आदि विशेषतायें, जीव की भी हो सकती हैं। जो यह कहते हो कि--परमात्मा के अतिरिक्त किसी और की नहीं हो सकतीं। उसके उत्तर में कहते हैं--"इतर परामर्शात् सः अर्थात् परमात्मा से इतर जीव की विशेषताओं का भी परामर्श किया गया है । उक्त प्रकरण के उपक्रम उपसंहार और मध्य के परामर्श से संदिग्ध का निर्णय हो जाता है। उक्त प्रसंग में आत्मविद् की समस्त कामनाओं की प्राप्ति बतलाकर मध्य में कहते हैं. कि-"यह जीव इस शरीर से उठकर पर ज्योति से संपन्न होकर अपने वास्तविक रूप को प्राप्त करता है, यही प्रात्मा है यही अमृत और अभय हैं" प्रसंग के अंत में कहा गया कि "जो.मात्मा है वही सेतु है।" इत्यादि, ___ तत्र संप्रसादः सुषुप्तिः, जीवावस्था, तत्र परसंबंधनिमित्तेन स्वेनैव रूपेणामिनिष्पत्तिवचनात् जीव एवैतादृश इति गॅम्यते । न पत्रपरमात्मनोऽयं धर्मः संभवति । अतः सर्वमेव प्रकरणं जीवपरं भविष्यतीति स एव जीव एव प्रकरणार्थ इति चेत्, न, जीवस्तादेशोनभवति, विरुद्धधर्मत्वेन व सर्वत्र सन्निश्चयात् । उभयोरेकरूपत्वे ह भयत्वमेव न स्यात् । कृतंपिबन्तावित्या
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy