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मैं भी भगवदाविर्भाव होता है उसे ही स्वरूपाविर्भाव कहाँ गया है । इससे निश्चित होता है कि दोनों ही प्रकरण भगवतपरक हैं । इसी प्रकार अन्यत्र भी, भगवदावेश मानकर समस्त विशेषताओं को भगवद् संबंधी मानना चाहिए । इसलिये दहर, परमात्मा ही है ।
अन्यार्थश्च परामर्श: ।।३।२०।।
परामर्शश्च प्रयोजनमाह-अन्य एवार्थः प्रयोजनंयस्य तस्माद् बमहरहवा एवंविदं स्वर्गलोकमेति । स्वस्यवं ज्ञाने हि ब्रह्मसुख फलं ब्रह्मज्ञानापेक्षायांमुप'युज्येत । भगवतश्च तदाविर्भावो भवतीति चकारार्थः। संपत्तीभगवदावेशकथनार्थं वक्ष्यति च-स्त्राप्ययस पत्योरन्यतरापेक्षमाविष्कृतं हि" इति चतुर्थे । तस्मान्न परामर्शनान्यथाकरूपनम् ।
परामर्श का प्रयोजन बतलाते हैं कि- इसका अन्य ही अर्थ में प्रयोजन है । "तस्माद् यमहरहर्वा" इत्यादि में अपने भगवद विषयक अमृत अर्थात् मर्त्य संयमित ज्ञान में ही ब्रह्मसुख फल को, ब्रह्मज्ञान की अपेक्षा से कहा गया हैं । ज्ञानदशा में ही भगवदाविर्भाव होता है, यही सूत्रस्थ चकार के प्रयोग का तात्पर्य है । सम्पति में भगवदावेश कहने के लिये सूत्रकार ने "स्वाप्ययसंपत्योरन्यतरापेक्षमाविष्कृतं हि" ऐसा सूत्र ही बनाया है । इसलिए परामर्श से, ब्रह्म के अतिरिक्त दूसरे अर्थ की कल्पना नहीं करनी चाहिये।
अल्पभु तेरितिचेत्तदुक्तम् ॥१॥३॥२॥ . - ननु न वय जीवे उपपत्तिरस्तीति जीवप्रेकरणं कल्पयामः किन्तु ब्रह्मणि नायमर्थ उपपद्यतो अल्पश्रुतेः- मल्पे हि पुंडरीके कथं भगवंदवस्थानम् ? ध्यापकत्वश्रवणात् । “यावान् वापमाकाश" इति तस्माद् बिरोध परिहारय जीव एवाराममात्रस्तथा भवत्विति कल्प्यत इति चेत्तहिं भवान् सम्यग्विवारकोऽस्मदीय एव । परं तत् समाधानं पूर्वमेवोक्तम्, निघाय्यरवादेवं व्योमवच्चेत्यत्रं । तन्ने प्रस्मर्त्तव्यम् सर्वभवनसमर्थब्रह्मरिण नाशंकनीयः तथा' पुरुष शरीरंच--