SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 208
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४१ वह अग्नि ही है। इसी की उपासना के लिए, त्रेताग्नि के नाम से कल्पना की गई है। "प्राणो हि देवता" इत्यादि में इसकी उपासनापरक कल्पना है । इन्हीं आधारों पर इस अन्तः स्थित वैश्वानर अग्नि को भगवद्धर्म के रूप में नहीं स्वीकारा जा सकता । वाजसनेयि ब्राह्मण में-"पुरुषेऽन्तः प्रतिष्ठितं वेद" इत्यादि प्रसंग में वैश्वानर अग्नि शब्द से स्पष्ट उल्लेख करते हुए उसे प्राणियों के अन्दर स्थित बतलाया गया है। इसमें परमात्मा से विरुद्ध ही गुण हैं इसलिए भगवान, वैश्वानर नहीं हो सकते । इत्यादि शंका में अनर्गल हैं । उक्त प्रसंग में भगवान की सर्वभोक्त त्व शक्ति को दिखलाने के लिए वैश्वानर को जाठराग्नि के रूप में दिखलाया गया है । भगवान ही हर वस्तु के कारण हैं इसलिए हर वस्तु के गुण भगवान में स्थित हैं, विभिन्न विलक्षण गुणों की स्थिति, भगवान के ऐश्वर्य की ही परिचायक है । वह उन्हीं के लिए वर्णन किये गये हैं। तर्हि कार्यवाक्यमेवास्तु स्मृत्यनुरोधादिति चेतः तत्राह-असंभवात्, नहि तस्य च मूर्द्धत्वादयो धर्माः संभवति । उपचारादुपासनार्थम् परिकल्पनं भविष्यतीति चेन्न । पुरुषमपि चैनमधीयते, वाजसनेयिनः । “स एषोऽग्निवैश्वानरो यत्पुरुषः, स यो हैतमेवाग्नि वैश्वानरं पुरुषविधं पुरुषेऽन्तः प्रतिष्ठितं वेद" इति । तस्मात् पुरुषत्वं, पाठान्तरे पुरुषविधत्वं वा जाठरस्य न संभवतीति भगवान् एव वैश्वानरः। भगवत्परत्वे संभवत्यन्यकल्पना न युक्त ति । यदि कहें कि, गीतास्मृति में जो जाठराीिन का वर्णन है वह कार्य के आधार पर है, इसलिए उक्त उपनिषद् वाक्य कार्यपरक है, कारण (परमात्मा) परक नहीं है। इसका समाधान करते हैं कि, “धू मूर्ध" अादि विशिष्ट धर्म अग्नि में संभव नहीं हैं, इसलिए यह परमात्मापरक वाक्य है । यदि कहो कि, उपासना के लिए उसकी औपचारिक रूप से परिकल्पना की गई है, सो बात भी नही है-वाचसनेयी में ''स एषोऽन्निवैश्वानरो यत्पुरुषः" इत्यादि में इस वैश्वानर को पुरुष भी कहा गया है, केवल अग्नि रूप ही हो ऐसा नहीं है । इसका पुरुष या पुरुष के समान वर्णन किया गया है. इसलिए वैश्वानर का केवल जाठराग्नि के रूप में ही वर्णन किया गया हो सो बात नहीं है, वह तो भगवान ही हैं । भगवलपरक होने से इसकी अन्य रूपों से परिकल्पना करना उपयुक्त नहीं है।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy