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________________ शब्दादिभ्योऽन्तः प्रतिष्ठान्नेति चेन्न, तथा दृष्ट्युपदेशाद संभवात पुरुषमपि चैनमधीयते ।।२।२५॥ किंचिदाशक्य परिहरति । ननु यदि स्मर्यमाणमनुमान स्यादिति वाक्यार्थी निर्णीयते, तदा स्मृत्यन्तरेणान्यथापि व्याख्येयम । "अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देह माश्रितः । प्राणापान समायुक्तः पचाम्यन्न चतुर्विधम् ।" इति जाठर एवाग्निवैश्वानरो भवति । तस्यैव भगवविभूतित्वात् । वाक्यार्थों यथा कथंचिद् योजयिष्यते । न तु विरुद्धधर्माणां विद्यमानत्वाद् भगवत्परत्वं वा यस्य । विरुद्ध धर्माः शब्दादयः। अन्तः प्रतिष्ठानं च । अग्निवैश्वानर इति शब्दः केवल वैश्वानर पदे भवेत् । भगवत्परत्वं योगेन । तदग्नि साहचर्यादग्निरेव भवति । तस्यैव च त्रेताग्निकल्पनमुपासनार्थम् । "प्राणो हि देवता तद् यद्भक्तं प्रथममागच्छेत तद्धीमीयम्" इत्यादिना। तदेतेभ्यो हेतुभ्योऽन्तः प्रतिष्ठितत्वमपि न भगवद्धर्मः। पुरुषेऽन्तः प्रतिष्ठितं वेदेति भिन्न हेतुर्हेतुश्च भवतीति न चकारः। तस्माविरुद्धधर्माणां विद्यमानत्वान्न भगवान् वैश्वानर इति चेत्, न, तथा दृष्ट्युपदेशात् सर्वभोक्तृत्वं भगवतो वक्तुं तथा दष्टिम्पदिश्यते । विरुद्धधर्माणां गत्तभावापत्तिरित्यश्वर्य मेव भगवतो परिणतम् । कुछ शंका उपस्थित कर उसका परिहार करते हैं । यदि स्मर्यमाण वस्तु को अनुमान मानकर वाक्य का निर्णय करते हो तो स्मृति (गीता) के निम्न वाक्य के अनुसार दूसरी ही प्रकार की व्याख्या करनी पड़ेगी- "हे अर्जुन ! मैं ही वैश्वानर होकर प्राणियों के शरीर में स्थित रहकर प्रारण और अपान के समभाव होने पर चतुर्विध अन्न को पाता हूँ" इसमें तो जाठराग्नि ही वैश्वानर कही गई है। उसे ही भगवद् विभूति कहा गया है इसलिए चाहे 'बाक्यार्थ को किसी प्रकार संगत कर भी लो अन्यथा विरुद्ध गुणों की स्थिति होने से, उक्त वाक्य को भगवस्परक तो कह नहीं सकते (अर्थात् अग्नि और भगवान के विपरीत ही गुण हैं) शब्द और अन्तः स्थिति की बात दोनों ही विपरीत गुण हैं । वैश्वानर अग्नि शब्द, केवल वैश्वानर पद से वर्णन किया जाता है । इस शब्द का भगवल्परक प्रयोग गीता के उक्त वाक्य के आधार पर ही किया जा सकता है, वहां भी इसका अग्नि के रूप में वर्णन है 'इसलिए
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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