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________________ होती है, पर वस्तुतः है वो भगवान के लिए ही प्रयुक्त, हिरण्यगर्भ का उससे कोई संबंध नहीं है । विराट पुरुष का ही रूप दिखलाया गया है विराट पुरुष परमात्मा ही है । तथा विश्व जड जीव नर, ये दोनों ही भगवान के अंश हैं, इन दोनों शब्दों के संयोग से ही द्वन्द्व समास करने से यह वैश्वानर शब्द निष्पन्न हुआ है, इससे यही निश्चित होती है कि परमेश्वर ही वैश्वानर है, दूसरा और नहीं । जहाँ कहीं वैश्वानर शब्द का प्रयोग किसी अन्य के लिए हुमा भी है वह भी उन सबके भगवदंश होने के कारण, प्रौपचारिक मात्र है । इसलिए वैश्वानर परमात्मा ही है। स्मयंमाणमनुमानं स्यादिति ।।२।२५॥ व्याख्यानेन भगवत्परत्वाद् वाक्यस्य प्रमाणान्तरमाह"केचित् स्वदेहे हृदयावकाशे प्रादेशमात्रं पुरुषं वसन्तम् । चतुर्भुजं कंजरथांगशंखगदाधरं धारणया स्मरन्ति ।।" इति स्मर्यमाणं रूपमनुमा स्यात्, प्रादेशमा वैश्वानरस्य ब्रह्मत्वे । स्मरण हि मननं श्रुतस्य भवति । श्रुतिवाकेभ्य एव हि श्रवणम् । यदि प्रादेशमात्र वैश्वानरप्रतिपादक जातीयानां न ब्रह्मवाक्यत्वं स्यात् तदा स्मरणं नोपपद्यते । अत, इति हेतोः प्रादेशमात्रवैश्वानरो भगवानेवेति सिद्धम् । उक्त वाक्य को अन्य प्रमाण से भगवरपरक सिद्ध करते हैं- 'कोई, अपने देह के हृदयाकाश दहर में बसे हुए प्रादेशमात्र पुरुष को, शंख चक्र गदा पद्म धारी चतुर्भुज रूप से स्मरण करते हैं ।" यहाँ जिस स्मर्यमाण रूप का उल्लेख है वह प्रानुमानिक ही है, प्रादेशमात्र में तो वैश्वानर ब्रह्म की ही वसति है श्रुत वस्तु के मनन को ही स्मरण कहते हैं । अति वाक्यों को ही श्रवण कहते हैं। यदि प्रादेशमात्र वैश्वानर प्रतिपादक वाक्यों को ब्रह्मपरक नहीं माना जाय तो ब्रह्म के स्मरण का प्राधार ही क्या हो सकता है, स्मरण की बात उठेगी भी कहाँ से ? इससे निश्चित होता है कि, प्रादेश मात्र वैश्वानर भगवान ही हैं।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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