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________________ १४२ अत एव न देवता भूतं च ।।२।२७॥ वैश्वानरो न ऊत्येत्यादि मंत्रदेवताया महाभूताग्नेर्वा वाक्यार्थतेति कस्यचिद् बुद्धिः स्यात् । तदप्यतिदेशेनैव परिहरति । मुख्योपपत्तिभंगवत्परत्वे सभवति, नान्यकल्पना युक्त ति ।। "वैश्वानरो न ऊति" इत्यादि मंत्र के आधार पर देवता या महाभूताग्नि मानकर वाक्यार्थता की कल्पना भी किसी की बुद्धि में उपजी, उसका भी मतिदेश के आधार पर परिहार करते हैं कि, मुख्योपपत्ति तो भगवत्परक ही हो सकती है, इसलिए किसी अन्य की परिकल्पना करना उपयुक्त नहीं है। साक्षादप्यविरोधं जैमिनिः ।।२।२८॥ अधुना परिमाणविशेषो विचार्यते । प्रादेशमात्रत्वं भगवतः स्वाभाविक कृत्रिमं वेति ? अस्मिन् सिद्धएव पूर्वोक्त सिद्धं भवेदिति विचार्यते । तत्रास्मिन्नर्थे चत्वार ऋषयो वेदार्थ चिन्तकाः प्रकारभेदेन । तत्र केवल शब्द बल विचारका प्राचार्याः । शब्दार्थयो जैमिनिः। प्राश्मरथ्यस्तु शब्दोपसर्जनेनार्थ विचारकः । केवलार्थविचारको बोदरिः । प्राचार्यः पुनर्विचाराविचारयोर्दोष पश्यन् विचारमपिवदस्तेषामल्पबुद्धिस्यापनाय नामान्याह । अब परिमाण विशेष पर विचार करते हैं। भगवान की प्रादेश मात्र परिमाण की जो कलाना है वह स्वाभाविक है या कृत्रिम ? इसका निर्णय होने से पूर्वोक्त कथन भी निर्णीत माना जा सकता है, इसलिए इस पर विचारते हैं । इस पर वेदार्थ चिन्तक चार ऋषि भिन्न भिन्न प्रकार से विचार करते हैं । अन्य तो केवल, शब्द बल के आधार पर विचार करने वाले प्राचार्य हैं, जैमिनि शब्द और अर्थ दोनों के आधार पर विचार करते हैं । प्राश्मरथ्य, तो शब्द' को छोड़कर प्रथं पर विचार करते हैं । बादरि केवल अर्थ पर बिचार करते हैं । प्राचार्य बादरायण, विचार और अविचार के दोषों का विश्लेषण करते हुए अन्यान्य ऋषियों के विचारों को केवल, उनकी अल्पबुद्धि दिखलाने के लिए ही उन ऋषियों के नाम देकर प्रस्तुत करते हैं । तत्र जैमिनिरुभयबल विचारकः प्रथम निर्दिश्यते । व्यापकस्य प्रादेश मात्रत्वे साक्षादपि कल्पना व्यतिरेकेणापि स्वरूप विचारेणेवाविरोधं मन्यते
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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