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पूर्वपक्ष की दृष्टि से विचारने पर यह कहना भी कोई अत्युक्ति न होगा कि, ब्रह्मविद्या नाम वाली जिस शक्ति का विवेचन करते हो वह सांख्य स्मृति सम्मत है जिसे ब्रह्म विद्या ही समझ लो । “ब्रह्म के मूत्त और अमूर्त दो रूप ज्ञेष हैं" इत्यादि में विकार ही ब्रह्म पद का वाचक है, इससे निश्चित होता है कि प्रकृति पुरुष ही उक्त प्रकरण के विवेच्य तत्त्व हैं । इस मत का परिहार करते हुए उक्त सूत्र प्रस्तुत करते हैं । कहते हैं कि, उक्त प्रकरण में ब्रह्म और उसकी परा विद्या के अतिरिक्त कोई और दूसरे नहीं हो सकते, क्योंकि, उन दोनों के लिये जिन विशेषणों और लक्षणों का वर्णन किया गया है उनसे अन्यों का भेद है । अदृश्यता प्रादि गुण प्रकृति में संभव नहीं हैं, सभी वस्तुएं उसके ही बिकार हैं । धेट को देखकर, मिट्टी नहीं दीखती ऐसा नहीं कह सकते । ब्रह्मवाद में, सब कुछ होने का सामथ्यं, होने से ब्रह्म में विरोध का अभाव है । विकृत वस्तु कभी भी नित्य और सदा एक रूप वाली नहीं हो सकती। प्रकृति आदि सभी की विशेषतामों की तुलना करने पर ब्रह्मवादियों द्वारा प्रतिपाद्य ब्रह्म की विशेषतायें ही खरी उतरती हैं (उसे ही समस्त जड चेतनात्मक जगत का स्रष्टा कहा जा सकता हैं)।
यः सर्वज्ञ सर्वविदित्यादयस्तु सुतरामेव न प्रकृति धर्माः व्यवधानाच्च न' पुरुष संबंधः। अक्षर निरूपण एव पुरुष विशेषणाच्च, "येनाक्षरं पुरुष वेद सन्यम्" इति, तस्मादक्षर विशेषणानि, न प्रकृति विशेषणानि, नापि पुरुष विशेषणानि सांख्यपुरुषस्य । न हि दिव्यत्वादयो गुणाः पुरुषस्य भवंति, न हि तन्मते पुरुषभेदो ह्यगी यतै जीव ब्रह्मवत् । न च तस्य वाह्याभ्यंतरत्वम् सर्वत्वाभावात्, न हि तस्माज्जायते प्राणादिः । तस्मात्पुरुष विशेषगणान्यपि न सांस्यपुरुष विशेषणानि, प्रतो विशेषणभेदः।
"जो सर्वज्ञ सर्वविद् है" इत्यादि वाक्य में जिन विशेषताओं का उल्लेख किया गया है, वो सब प्रकृति में संभव नहीं हैं सांख्य मत सम्मत पुरुष में भी संभव नहीं हैं क्योंकि ब्रह्मवादियों और उनके पुरुष की विशेषताओं में बड़ा अन्तर है । उनके पुरुष से अधिक विलेषतायें तो, ब्रह्मवादियों के अक्षर की हो हैं, "येनाक्षरं पुरुषं वेद सत्यम्" इत्यादि में उस अक्षर की विशेषतायें वर्णन की गई हैं, ये विशेषतायें उसकी अपनी विलक्षण विलेषतायें हैं, ये सांख्य वादियों की प्रकृति और पुरुष में नहीं हो सकती । दिव्यता प्रादि गुण भी