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________________ स्त पुरुषस्य ब्रह्मत्वं निःसंदिग्धमेव, ईषदानंदतिरोभावेन ब्रह्माऽभरमुच्यते, अकटानंदः "पुरुष" इति, "ब्रह्मविदाप्नोति परम्' इत्यत्रैव तथा निर्णयात् । तस्माददृश्यत्वादिगुणकः परमात्मैव । उक्त मत पर सिद्धान्त कहते हैं कि, अदृश्यता प्रादि गुण वाले परमात्मा ही हैं, ब्रह्म के स्वरूप को जान लेने मात्र से सब कुछ समझ में आ जाता है, उसी से विद्या के परत्व की बात भी समझ में आ जाती है। अक्षर और पुरुष ये दोनों भी ब्रह्म के ही नाम हैं, दोनों एक ही हैं, एक ब्रह्म का पर स्वरूप है एक अपर, ब्रह्मवाद का इस प्रकार का विवेचन किया गया है । पहिले अक्षर के ब्रह्मत्व की बात कहते हैं कि अदृश्यता भादि गुणों वाले परमात्मा ही हैं, उन विलक्षण गुणों से ही यह बात निश्चित हो जाती है, .ऐसे विलक्षण पुण वाले अक्षर से ही इस विश्व की रचना संभव है, यही इस उपनिषद् का तात्पर्य है, इस उपनिषद् में जो जगत के उत्पत्ति की बात कही गई है, यह ब्रह्म के अतिरिक्त किसी के सामर्थ्य की बात नहीं है। पुरुष का ब्रह्मत्व भी असंदिग्ध है, थोड़े से छिपे हुए आनंद वाले स्वरूप को अक्षर तथा प्रकट आनद वाले स्वरूप को पुरुष कहते हैं. "ब्रह्मविदाप्नोति परम्" इस श्रुति से यह बात स्पष्ट हो जाती है । इस विवेचन से निश्चित हो जाता है कि अदृश्यता आदि गुण वाले परमात्मा ही का उक्त प्रकरण में विवेचन किया गया है। विशेषण भेदव्यपदेशाभ्यो च नेतरौ ।१२।२२॥ ननु पूर्वपक्षन्यायेन ब्रह्मविद्याख्यायामपि स्मृतिः ब्रह्मविद्य वाऽस्तु । " ब्रह्मणी चेदितव्ये मूत्तंचामूर्त च” इत्यत्र विकारस्य॑व ब्रह्मपद वाच्यत्वम् । अतः प्रकृति पुरुषावेव वाक्यार्थ इति परिहरति इतरौ न भवतो वाक्यार्थ रूपौ; कुतः ? विशेषरणभेदव्यपदेशाभ्याम् विशेषणभेदो व्यपदेशश्च ताभ्याम् । अदृश्यत्त्वोदयो गुणा न प्रकृते भवन्ति । सर्वस्यापि तद् विकारत्वात् । न हि घटदर्शनेन मृन्न दृश्यत इति वदितुं युक्तं । ब्रह्मवादे पुनः सर्वभवन समर्थत्वाद् ब्रह्मणि विरोधाभावः । न हि नित्यं सदकरूपं विक्रियमाणं च भवितुमर्हति । सर्वब्रह्मघमंतुल्यत्वे तदेव ब्रह्मेति जिवं ब्रह्मवादिभिः ।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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