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________________ इस प्रसंग में नाम रूपात्मक जमत के जानने की बात कही गयी है, नाम की जानकारी के लिए तो वेदादि के स्वाध्याय की बात तथा रूप की जानकारी में परा विद्या की चर्चा है । वेदादि विद्या के विषय में तो संशय की गुंजायस ही नहीं हैं। परा विद्या के विषय में संशय होता है कि ये सांख्यमत विद्या की चर्चा है अथवा ब्रह्म विद्या की? सांख्य धर्म सम्मत विद्या भी उनके तंत्र में परा विद्या के नाम से ही प्रसिद्धि है, इसलिए संशय होता हैं । जैसा कि परा का वर्णन है -"परा से प्रक्षर को जाना जाता है," उस अक्षर को धीर लोग अदृश्य, अग्राह्म, अगोत्र, अवर्ण अचा, हाथ पैर रहित, नित्य व्यापक, सर्वत्र परिपूर्ण, अति सूक्ष्म, सर्वथा अविनाशी, समस्त भूतों के कारण रूप से देखते हैं।' इसके आगे पुरुष की विशेषताएँ बतलाते हुए कहा "दिव्य, निराकार पुरुष, जन्म रहित, सभी जगह व्याप्त, प्राणों और मन से अग्राह्य शुभ्र तथा अक्षर से भी प्रतीत है" इसके बाद "इसी से सृष्टि होती हैं" कहते हुए "अग्नि मूर्द्धा तथा सूर्य चन्द्र उसके नेत्र हैं" इत्यादि से उसके स्वरूप का निरूपण करते हुए उस पुरुष से सृष्टि का वर्णन किया गया है । एक ही प्रकरण में ये सारा वर्णन है इसलिए दोनों को एक विषय ही मानसा पड़ेगा इसमें अक्षर और पुरुष का भेद स्पष्ट रूप से ज्ञात होता है। उन दोनों से ही सृष्टि की बात भी कही गई है। ब्रह्मवाद में यह मत संगत नहीं होता। इससे निश्चित होता है कि इस मत में सांख्य मत का ही निरूपण है । प्रकृति और पुरुष के एक दूसरे से मिले होने से, किसी एक की प्रधानता न होकर दोनों की ही सृष्टि निश्चित होती है, जगत की सृष्टि प्रकृति और पुरुष (जड़ और चैतन्य) दोनों के संयोग से ही है । "अग्निमूर्धी" इत्यादि में रूप की चर्चा की है वह भी समष्टि और व्यष्टि दोनों में संयोगात्मक ही दिखलाई गई है। सत् चित प्रानन्द का कोई स्पष्ट रूप तो सृष्टि में दृष्टिगत होता नहीं जिसके आधार पर उसे ब्रह्मविद्या का विस्तार कहा जाय । सांख्यस्मृति परिकल्पित प्रधान ही का वर्णन कह सकते हैं । एवं प्राप्त उच्यते--अदृश्यत्वादिगुणकः परमात्मैव ब्रह्मविज्ञाने नैव सर्व विज्ञानात् । तत एव विद्याया अपि परत्वम्, अक्षरस्यापि ब्रह्मत्वं पुरुषस्यापि, तयोः परस्परभावः, अभेदश्च, एतादृश एव हि, ब्रह्मवादः । तत्र प्रथम अक्षरस्य ब्रह्मत्वमाह । अदृश्यत्वादिगुणकः परमात्मैव; कुतः ? धर्मोक्त, तथाऽक्षरात् संभवतीहि विश्वमिति, इयं चोपनिषद् । न पत्र ब्रह्मव्यतिरिक्ताज्जगदुत्ति
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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