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________________ प्रस्तुत कर सिद्धान्त निर्णय करते हैं । शारीर जीवात्मा, अन्तर्यामि ब्राह्मण में वर्ण्य "पृथिवी जिसका शरीर है" इत्यादि के अभिमानी देवता के रूप में नहीं हो सकता । दूसरी बात ये है कि काण्व और माध्यन्दिन दो ब्राह्मणों में अन्तर्यामी तत्त्व को भिन्न रूपों से वर्णन क्यिा गया है उनमें इस जीव को अन्तर्यामी तत्त्व से स्पष्टतः भिन्न बतलाया गया है । जिससे संदेह का अवकाश ही नहीं रह जाता । “जो विज्ञान में स्थित होकर" काण्व ब्राह्मण तथा “जों आत्मा में स्थित होकर" माध्यन्दिन ब्राह्मण के वचन हैं । इनमें जिस आत्मा में स्थित होने की बात कही गई है वह आत्मा, जीवात्मा के अतिरिक्त दूसरा कोई और नहीं हो सकता। औरों की बात तो इस वाक्य के पहिले ही कहते पाये हैं, अन्त में प्रात्मा शब्द से जीव का ही उल्लेख किया गया है। इससे निश्चित ही अन्तर्यामी ब्राह्मण में ब्रह्म का वर्णन ही सिद्ध होता है। अदृश्यत्वादिगुणको धर्मोक्त ।१२।२१॥ ___ मुण्डके हि श्रूयते "कस्मिन्न भगवो विज्ञातः" इति पृष्ट "द्वविद्य वेदितव्ये" इत्युत्तरमाह । वत्र नामरूपात्मकजगतो विज्ञानार्थ नामांशे वेदादिः रूपांशे परा च तत्र वेदादिविद्यायां न संदेहः । परायां संदिह्यते । किमेषा सांख्यमत विद्या, ब्रह्म विद्या वा ? सांख्य धर्माभिलापात् संदेहः अथपरा यया तदक्षरमधिगम्यते, “यत्तदद्र श्यमग्राह्यमगोत्रवर्णमचक्षुरश्रोत्रं तदपाणिपादंनित्यं विभुंसर्वगतंसुसूक्ष्मंतदव्ययं, तद्भूतयोनि परिपश्यन्ति धीराः" "इत्यादि, अनेच" दिव्यो ह्यमूर्तः पुरुषः स वाह्याऽभ्यन्तरो ह्यजः, अप्राणो ह्यमनाः शुभ्रो ह्यक्षरात् परतः परः “इत्युक्त्वा" "एतस्माज्जायते'' इति निरूप्य 'अग्निमूर्द्धा चक्षुणी चन्द्रसूर्यो" इत्याटिना रूपमुक्त्वा पुनः पुरुषात् सृष्टिमाह । तत्रैकप्रकरणत्वात् एकवाक्यता वक्तव्या । तत्राक्षरपुरुषयोर्भेदः प्रतीयते, तयोरुभयोरपि सृष्टिः, तद् ब्रह्मवादे न संगच्छते । तस्मात् ख्यमतमेवैतत् । प्रकृतिपुरुषयोः श्लिष्टत्वादन्यतरप्राधान्येतोभयोः सुष्दृत्वम् । उभयात्मकत्वाज्जगतः । रूपमपि समष्टेन्यष्टीनां अने हि उत्पत्तिः-इति । तिरोहितरूपत्वान्न ब्रह्मविद्या, किन्तु स्मृतिरेवेति । ब्रह्मविद्या, वेदविद्या, उपचाराद् वेति । मुण्डको निषद् का वाक्य है कि-"भगवन् ! तत्त्व को कैसे जानें ? 'ऐसा प्रश्न करने पर "दो विद्याभों को जानना चाहिए". ऐसा उत्तर दिया गया ।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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