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________________ १२७ एक देश में ही ब्रह्म का चिन्तन करते हैं, ये निम्नकोटि के उपासकों का ही मार्ग है, उनके लिए ब्रह्मवाद अशक्य सा है तभी वे एकदेशीय उपासना में संलग्न होकर साधना करते हैं । अन्तर्याम्यधिदेवादिषु तद्धमंव्यपदेशात् १ | २|१८| "य इमं च लोकं परं च लोकं सर्वाणि च भूतान्यन्तरो यमयति" इत्युपक्रम्य श्रूयते " यः पृथिव्यां तिष्ठन् पृथिव्या अन्तरो यं पृथिवी न वेद यस्य पृथिवी शरीरं यः पृथिवीमन्तरो यमयति इत्येष त श्रात्मान्तर्याम्यमृतः " इत्यादि । तत्राषिदेवमाधिलोकमधिवेदमधियज्ञमधिभूतमध्यात्मं च कश्चिदन्तरवस्थितो यमयिताऽन्तर्यामीति श्रूयते । तत्र संशयः किमन्तर्याम्याधिदेवा दिषु सर्वत्रेक एव, प्रथाधिदेवादीन भेदात् भिद्यत इति । 'जो इस लोक, परलोक और समस्त भूतों का संयमन करते हैं" ऐसा उपक्रम करते हुए श्रुति कहती है -- "जो पृथिवी में स्थित होकर पृथिवी के अन्तर्यामी हैं जिन्हें पृथिवी नहीं जानती पृथिवी ही जिनका शरीर है, वह अन्तर्यामी रूप से पृथिवी का संयमन करते हैं, वे ही तेरे भी अन्तर्यामी अमृत हैं" इत्यादि । इस प्रसंग में, अधिदैव, अधिलोक, प्रधिवेद, अधियज्ञ, अधिभूत प्रौर अध्यात्म रूप से किसी अन्तः स्थित अन्तर्यामी के द्वारा संयमन की बात कही गई है । इस पर संशय होता है कि अधिदेव आदि के भेद से भिन्न भिन्न है । सामान्यनस्त्वन्तस्वद्धर्मोपदेशादिति न्यायेन प्रत्रापि ब्रह्मत्वं सिद्धमेव । यथा शब्दभेदात् संदिह्यते । श्रधिदेवादि षड्भेदा श्राधार धर्मा भगवत्युपचर्य न्ते, अथवा संज्ञा विशिष्टा श्रन्य एवेति ? तत्र तत्तदधिकृत्य यो वर्त्ततेऽभिमानेन तस्य तादृश शब्द प्रयोगः । सामान्य रूप से तो "अन्तस्तद्धर्मोपदेशात् " इस न्याय से यहाँ भी ब्रह्म ही अन्तर्यामी रूप से सिद्ध होते हैं । शब्द भेद से ही संदेह होता है । अधिदेव प्रादि छः भेद श्राधार धर्मों के रूप से भगवान में ही घटित होते हैं अथवा संज्ञा विशेष रूप से भिन्न ही हैं ? लगता है उन उन स्थानों में श्रभिमानी रूप से जो जो देवता स्थित हैं उनके लिए वैसे ही शब्दों का प्रयोग किया गया है।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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