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________________ १२६ की भिन्न स्थिति रहती है अतः अस्थिरता म्वाभाविक है। उपासना काल में चित्त को स्थिर करने के लिए नेत्र बन्द करेंगे तो प्रतिबिम्ब का प्रभाव हो जायगा, उपास्य रवरूप के प्रतिबिंब का भी प्रभाव होगा अतः अस्थिरता होगी । यदि हम किसी उपदेष्टा का उपदेश श्रवण कर रहे हैं तो उपदेष्टा के स्वरूप का जो प्रतिबिंब हमारे नेत्रों में या हमारा प्रतिबिंब उसके नेत्र में पड़ रहा है तो यदि हम प्रतिबिंब देखने की प्रोर अपने मन को लगावेंमें तो हमें श्रत वस्तु कुछ भी समझ में नहीं प्रावेगी और यदि ध्यान से सुनेंगे तो उस प्रतिबिंब को देख नहीं सकेंगे इस प्रकार उसके अस्तित्व के विषय में निश्चित मत नहीं कर सकते । यदि वक्ता के उपदेश को मानकर ही उसपर विश्वास करने की बात है तो फिर गुरू वचन का ही विश्वास किया जा सकता है क्योंकि वही प्राप्त वक्ता है यदि वे न हों तो फिर उसका निर्णायक कौन होगा निर्णय भी क्या होगा ? अनिश्चतता ही रहेगी। किंच, मनसो हि उपासनं कर्तव्यं, तत्र चासंभव एव तादृश धर्मवत्त्वं च न संभवति । प्रासुरत्वं च भवेदिति चकारार्थः । तस्मादक्षिस्थाने सहज एवन्योभगवानस्ति तत्परमे वैतद्वाक्यमिति सिद्धम् । व्यापक सर्वगतस्य सर्वतः पाणिपादान्तत्वादानन्दमूत्ति भगवान एव, ब्रह्मवादे त्वेषव मर्यादा । सगुणवादो ब्रह्मवादाज्ञानादिति । यदि कहें कि मानसिक उपासना करनी चाहिए, तब तो अक्षिपुरुष की प्रतिबिंब उपासना की बात बिलकुल ही असंभव है, जो प्रत्यक्ष में उसको देखते हुए अनुभूति होती है वह मानसिक रूप में कदापि संभव नहीं है । बल्कि नेत्र बन्द कर अक्षिपुरुष के प्रतिबिंब का मन में ध्यान करने पर बजाय दैवभाव के प्रासुरभाव ही होगा। इस प्रकार विवेचन करने पर यही निश्चित होता है कि सहज स्वरूप भगवान ही प्रक्षिपुरुष के रूप में इस वाक्य में बतलाये गए हैं, यही मानना समीचीन है। व्यापक सर्वगत सभी जगह हस्त चरणों के प्रसार करने वाले पानंदमूर्ति भगवान ही हैं, अर्थात् उनका प्रानंद स्वरूप सभी जगह ब्याप्त है, ब्रह्मवाद में यही मानना उचित है । उस व्यापक परमात्मा को प्रकट होने के लिए स्वल्प स्थान भी पर्याप्त है, यह संशय नहीं किया जाना चाहिए कि, व्यापक सूक्ष्म नेत्र विन्दु में कैसे व्याप्त हो सकता हैं । ब्रह्म ही सब जगह व्याप्त है ऐसी मान्यता ही ब्रह्मवाद के नाम से प्रसिद्ध है, सगुणवादी वे ही हैं जो कि
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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