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________________ १२८ अधिलोकादयश्च शाखान्तरेऽन्यत्रैव प्रसिद्धायोगख्यापकाः पंचस्वधिकरणेषु, अधिलोकमधिज्योतिषमित्यादि, अतोऽधिदैवादि शब्दा यौगिकाः सन्तो न भगवति वत्तितुमुत्सहन्ते । नाप्यन्ये कल्पनीया यद्धर्मा उपचाराद् भगवति भवेयुः । कल्प्यमानस्य सर्वानुस्यूतस्य तादृशस्य भगवद्व्यतिरिक्तस्यासंभवात् । तस्मादन्तर्यामिब्राह्मणं कुत्राप्ययुक्त सत् तत्तदभिमानि देवता स्तुतिपरमेव तत्तदुपासनाथ भविष्यति । प्रज्ञानं चासंदेहे संदेहवदुपद्यते देहोऽसवोऽक्षा इति न्यायाद्वा । स तु निषिद्ध संज्ञा भगवति कल्पयितुं शक्ये ति । अधिलोक आदि पांच, तैत्तरीय शिक्षोपनिषद् में योग तत्त्व के पांच रूपों में बतलाये गये हैं "अधिलोकमधिज्यौतिषमित्यादि" इससे निश्चित होता है कि अधिदैव आदि शब्द यौगिक हैं, उन्हें भगवान में घटित नहीं कर सकते और न किसी अन्य देवता के लिए ही इनकी कल्पना कर सकते हैं, जिनके ये धर्म औपचारिक रूप से भगवान में कहे जा सकें । अर्थात् यह नहीं कह सकते कि ये अन्यान्य अभिमानी देवताओं के वाचक शब्द हैं, भगवान सर्वाधिदेव हैं ही इसलिए प्रौपचारिक रूप से इनका प्रयोग भगवान के लिए किया गया है। यदि ऐसा मान लेंगे तो भगवान तो सब में अनुस्यूत हैं ही उनके अतिरिक्त किसी अन्य में वैसी विशेषतायें हो नहीं सकती यही कहना होगा। लगता है अन्तर्यामी ब्राह्मण, उन उन स्थानों के अभिमानी देवतानों की स्तुति के रूप में ही प्रस्तुत है । प्रज्ञानवश असंदिग्ध विषय भी संशयित प्रतीत होता है-जैसा कि भागवत षष्ठ स्कन्ध में दक्ष प्रजापति स्तुति करते हैं-"देहोऽसवोऽक्षा मनवोभूतमात्रा नात्मानमन्यं च विदुःपरं यत्, सर्व पुमान् वेद गुणाश्च तज्ज्ञो न वेद सर्वज्ञमनंतमीडे ।" अर्थात्-हे भगवन ! देह, प्राण, इन्द्रिय, अन्तः करण की वृत्तियाँ पंच महाभूत और उनकी तन्मात्रायें ये सब जड़ होने के कारण अपने को और अपने से अतिरिक्त को भी नहीं जानते परन्तु जीव इन सब को और इनके कारण, सत्त्व रज तम इन तीन गुणों भी जानता है किन्तु दृश्य अथवा ज्ञय रूप से आपको नहीं जान सकता, क्यों कि प्रापही सबके ज्ञाता और अनन्त हैं, इसलिये मैं केवल आपकी स्तुति मात्र कर रहा हूँ।" इसलिये भगवान के लिए इन निषिद्ध विशेषणों की कल्पना नहीं कर सकते। एवं प्राप्ते उच्यते-"अन्तर्याभ्याधिदेवादिषु' अन्तर्यामी अधिदेवादिषु भगवान् एव, नान्यस्तादशो भवितुमर्हति । ननु चोक्त भगवतिकथं निषिद्ध कल्पनमिति-तत्राह-तद्धर्मव्यपदेशात् तेषांधर्मास्तद्धर्माः तत्प्रयुक्त बोधकाः, ते
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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