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________________ पूर्वपक्षसिद्धान्तयोश्चकारद्वयेतादृष्टा वाक्यान्तरे पूर्वपक्षसिद्धान्तयोराधिक्योपपत्तिसमुच्चयार्थम् । तेन अत एव प्रारण इति बदधिकरणान्तरमपि सूचितमिति । द्वितीय दूषण का परिहार करते हैं कि वह परमात्मा सूक्ष्म अाकाश रूप से समस्त में व्याप्त हैं । श्रीहि आदि के समान जो उनकी तुल्यता वतलाई गई है वह चतुर्विध भूत समुदाय की अन्तर्यामिता की विज्ञापक है । ब्रीहि आदि चार पौधे 'हृदय के समान समस्त जगत के प्रादेश स्थानीय हैं, यही भाव दिखलाया गया है । चतुर्विध भूत के हृदयाकाश में प्रकट सच्चिदानन्द स्वरूप सब जगह नख से सिख तक व्याप्त हैं । यही भाव है। ' पूर्वपक्ष कोर सिद्धान्त के निरूपण के लिए सूत्र में दो चकारों का प्रयोग किया गया है। विभिन्न वाश्यों में पूर्वपक्ष और सिद्धान्त की अधिकता का निरूपण किया गया है, इस सूत्र में दोनों का एक साथ उल्लेख किया गया है यही उसका तात्पर्य है । "प्रत एव प्राण" इस सूत्र की तरह मधिकरण विभिन्नता के सूसक भी हैं। संभोगप्राप्तिरिति चेन्न वैशेष्यात् ।।२।। __बाधकमाशंक्य परिहरित । यदि सर्वेषां हृदये भगवान् जीववत् तिष्ठेत् तदा जीवस्येव तस्यापि सुखदुःखसाक्षात्कारस्तत्साधनादिपरिग्रहश्च प्राप्नोतीति चेन्न, वैशेष्यात् विशेषष्य भावो वैशेष्यम् तस्मात् । सर्वरूपत्वमानंदरूपत्वं स्वकत्तुं त्वं विशेषः, तद्भावोब्रह्मणि वर्त्तते, न जीवे इति जीवस्यैव भोगो न ब्रह्मण इति । वैशेष्यापवादयमर्थः सूचितः । अपेक्षित एव भोगो, नानपेक्षित इति, न तु तस्य भोगाभाव एव । अनिमाधिकरणविरोधात् । यथेन्द्रियाधिष्ठातृदेवतानाम् । तत्त्वमस्यादिवाक्येन जीवस्यापि तथात्त्वे तस्यापि तद्वदेव भविष्यति । बाधक संशय का परिहार करते हैं । यदि सभी के हृदय में जीव के समान भगवान भी स्थित हैं तो जीव के समान उनको भी सुख दुःख का अनुभव और सुख साधनों के संग्रह तथा दुःख साधनों के निराकरण की इच्छा होगी, ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि भगवान में विशेषता है, वे सभी रूपों में विद्यमान हैं, वे मानन्दस्वरूप हैं, ये सब कुछ उनका ही निर्मित है, सब
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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