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________________ ११२ कि गीता तो व्यास देव की रचना है तो व्यासजी ने भी भगवान के ज्ञानांश का ही संकलन किया है, इसलिए उक्त संशय का को ई स्थान नहीं है। उपक्रमबलीयस्त्वमाशंक्य परिहरति । उपक्रम की श्रेष्ठता से जीव की हिरण्मयता ही निश्चित होती है इस संशय का परिहार करते हैं - अर्भकोकस्त्वात्तद्व्यपदेशाच्च नेति चेन्न निचाय्यत्वादेवं व्योमवच्च १॥२७॥ ननु व्यापकस्येश्वरस्य हृदयदेशस्थितिरयुक्ता, बीयादिरूपत्वं च । अतोर्भकमल्पकमोको हृदयस्थानं यस्य तत्त्वाद् ब्रह्मादितुल्यत्वाच्च न परमात्मावाक्यार्थ इति चेन्न, निचाय्यत्वात् । पूर्व प्रथमदूषणं परिहरति । हृदये ज्ञातुं शक्यत इति तदायत्वेन प्रतिपाद्यते । व्यापक ईश्वर की ब्रीहि प्रादिरूप स्थिति और हृदय देश स्थिति असंगत है । अल्प और सूक्ष्म स्थान हृदय में उसकी स्थिति और उस महान तत्त्व का ब्रीहि आदि के समान होना समझ में नहीं पाता अतः उक्त वाक्य का अर्थ परमात्मा नहीं हो सकता इत्यादि संशय निराधार हैं-क्योंकि वह व्यापक है । पहिले प्रथम दूषण का परिहार करते हैं कि उस व्यापक परमात्मा को हृदय में ही जाना जा सकता है इसलिए हृदय को उसके पायतन रूप से प्रतिपादन किया गया है । निदिध्यासनानन्तरं हि साक्षात्कारस्तदंतःकरण एवेति निचाय्यत्वम् । भक्तीतु वहिरपीति विशेषः। निदिध्यासन के बाद ही उनका साक्षात्कार अन्तःकरण में होता है, यही उस व्यापक की महिमा है । भक्ति में बाहर भी उनका साक्षातकार हो जाता है । यह विशेष बात है । द्वितीयं परिहरति, एव्योमवत्, एवं ब्रीह्यादि तुल्यतया यत्प्रतिपादनं चतुर्विध भूतान्तरत्वख्यापनाय । यथा चत्वार उपरवाः प्रादेश मात्रा इति । तथा तद्हृदयाकाशे प्रकटस्य सच्चिदानंदस्वरूप सर्वतः पाणिपादान्तस्यतत्स्वरूपमिति ।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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