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________________ ६६ इत्यादि से प्रारंभ कर " तद् यथा रथस्यारेजु नेमिरर्पिता" इत्यादि तक वर्णित है । इसमें कहा गया है कि जैसे कि नाभि में छारे सन्निविष्ट हैं । वैसे ही समस्त भूत समुदाय प्रज्ञामात्र प्रारण में सन्तिविष्ट है ।" स एष प्रज्ञात्मानंदोऽजरोऽमृतो" इत्यादि में, विषय इंद्रिय आदि से अनभिभूत जीवात्मा को इंगित किया गया है । उसी को परमात्मा से संबद्ध बतलाते हुए " स म श्रात्मेति विद्यात् ऐसा उपसंहार किया गया है ।" इस प्रकार पूरे प्रकरण में श्रध्यात्म संबंध का ही बाहुल्य है । जिससे कि ब्रह्मोपदेश ही निश्चित होता है । बाधकस्य का गतिरित्यत आह- प्रकरण के ब्रह्मपरक स्वीकारने से, वक्ता इन्द्र का जो स्वात्मोपदेश है, उसका क्या समाधान होगा ? इसका उत्तर देते हैं-शास्त्रदृष्ट्या तूपदेशो वामदेववत् | १|१|२६|| पूर्वसूत्रेण परिहृतमत्र परिहरति तु शब्दः प्रयं दोषो व्यवहारदृष्ट्योपदेशे, अहं ब्रह्मत्यार्षेण दर्शनेन तूपदेशः । ननु " तत्वमसि'' "श्रयमात्मा ब्रह्म' इति वाक्येषु जीवस्य ब्रह्मत्वं बोध्यते । तत्र प्रत्यधिकारं शास्त्र प्रवृत्तिरिति न्यायेन स्वात्मन् एव ब्रह्मत्वावगतिर्मुख्या । न प्रतर्दनस्येन्द्रजीव ब्रह्मत्वावगतिरुपासनं वा पुरुषार्थाय । अतः शास्त्र दृष्टिरपि नैवंविधा । केवलस्य चैतन्यों मात्रस्य तादृशे ब्रह्मण्यैवावगति विरोधात्तत्त्वमस्यादिवाक्यार्थोऽध्यवसीयते । न तु ब्रह्मधर्मा जीवे वक्तुं शक्यन्त इत्याशंक्य परिहरति " वामदेववत् " पूर्व सूत्र से जिसका परिहार न हो सका, इस सूत्र से उसका परिहार किया गया है यही सूत्रस्थ तु शब्द का तात्पर्य है, उक्त दोष, व्यवहार दृष्टि से उपदेश देने पर ही हो सकता है, यदि किसी अन्तदृष्टा ऋषि द्वारा श्रहं ब्रह्म का उपदेश दिया जाय तो वह दोष नहीं है । जैसे कि "तत्वमसि" प्रयमात्मा ब्रह्म" इत्यादि वाक्यों से जो जीव का ब्रह्मत्व ज्ञात होता है-उसमें अधिकार में ही शास्त्र प्रवृत्ति होती है-इस नियम के अनुसार अपने में ही ब्रह्मावगति दिखलाई गई है । प्रतर्दन को जो इन्द्र से जीवत्वावगति का उपदेश मिला, वह उपासना या मोक्ष की दृष्टि से नहीं था । "तत्वमसि' इत्यादि में शास्त्र की भी ऐसी दृष्टि नहीं है । केवल सर्वज्ञत्व और अज्ञत्व आदि परस्पर विरोधी अंशों से रहित निर्विशेष चैतन्यमात्र जीव का निर्विशेष चैतन्य मात्र ब्रह्म में ऐक्य है यही "तत्वमसि' इत्यादि वाक्यों के अर्थ से अवगति होती है; प्रानंद अजर अमर आदि ब्राह्म धर्मों के ऐक्य की अवगति होती है, ऐसा नहीं कह सकते। ऐसी आशंका करके परिहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं “वामदेववत् ।”
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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