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________________ ६५ विरुद्ध तर्क प्रस्तुत करते हैं - जो यह कहा कि प्रारण ब्रह्म, है सो कथन ठीक नहीं है, क्योंकि प्रसंग में वक्ता अपने आत्मा के रूप में प्रारण को बतलाता है । वक्ता इन्द्र है जो कि - "मुझे ही जानो" मैं ही प्राण हूँ, प्रज्ञात्मा मेरी अमृत प्रायु की ही उपासना करो" इत्यादि रूप से, अपने आत्मा को ही प्रारण बतला रहा है, फिर प्रारण, ब्रह्म कैसे है ? तथा जैसे कि वाणी की गाय की तरह उपासना कही गई है, वैसे ही देवता की प्राण की तरह उपासना प्रतीत होती हैं । अन्य जो ब्रह्म धर्म हैं वे प्रारण के अपने ही हैं, इसलिए इस प्रकरण को ब्रह्मोपाख्यान कैसे कह सकते हैं ? न अध्यात्मसंबंध भूमाह्यस्मिन् अस्मिन् प्रकरणे अध्यात्मसंबधः आत्मानमधिकृत्य यः संबंधः, आत्मशब्दो ब्रह्मवाची, वस्तुतो जीवस्य ब्रह्मत्वाय तथा वचः । तस्य संबंधः तद्धर्माः तेषां बाहुल्यं प्रतीयते " एषकोकपालः" इत्यादि । यावद् यथाकथंचिदपि ब्रह्मप्रकरणत्वं सिद्धयति तावदन्यप्रकरणत्वममुक्तमिति हि शब्दार्थः । प्राणस्य प्रज्ञात्मत्वम्, स्वातंत्र्येणा त्वम् । "न वाचं विजिज्ञासीत् वक्तारं विद्यादिति" चोपक्रम्य तद् यथा “ रथस्यारेषु नेमिरर्पिता" नाभावरा अर्पिता एवमेवैता भूतमात्राः प्रज्ञामात्र स्वर्पिताः प्रज्ञामात्राः प्राणे अपिताः । " स एष प्रज्ञात्मानं दोऽजरोऽमृतो न साधुना कर्मरणा" इत्यादि विषयेन्द्रिय व्यवहारे श्रनभिभूतं प्रत्यगात्मानमेवोपसंहरति । स म आत्मेति विद्यात्" इति चोपसंहारः । तस्मादध्यात्मसंबंध बाहुल्याद् ब्रह्मोपदेश एवायम् । ( प्रतिवाद) उक्त तर्क संगत नहीं है, इस प्रकरण में तो अध्यात्म संबंध से भूमा का विवेचन किया गया है । आत्मा के आधार पर जो संबंध दिखलाया गया है वह जीवपरक नहीं है । श्रात्मा शब्द यहाँ ब्रह्मवाची है । वस्तुतः जीव के लिए जो श्रात्मा शब्द का प्रयोग होता है वह ब्रह्म संबन्ध से ही होता है (अर्थात् जीव, ब्रह्म का अंश है इस संबंध से ही जीव को श्रात्मा कहा जाता है ) ब्रह्म का संबंध ही इस श्रात्मा शब्द में है, उसी के धर्मो का बाहुल्य भी "एष लोकपालः " इयादि में प्रतीत होता है । सूत्रस्थ हि शब्द का तात्पर्य है कि जब तक जैसे भी ब्रह्म प्रकरणत्व की सिद्धि हो तब तक अन्य के प्रकरणत्व को नहीं स्वीकारना चाहिये । प्र.रण का प्रज्ञात्मत्व और स्वतंत्रता से प्रायुदातृत्व स्वाभाविक है जो कि - "न वाचं विजिज्ञासीत्"
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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