SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६४ गमात् । तथाहि पौर्वापर्येण पर्यालोच्यमाने वाक्ये पदार्थानां समन्वयो ब्रह्मप्रतिपादन पर उपलभ्यते । उपक्रमे तावद् " वरं वृणीष्व " इति इन्द्रः प्रतर्दनोक्तः परमपुरुषार्थं वरमुपचिक्षेप । " त्वमेव मे वृणीष्व यं त्वं मनुष्याय हिततमं मन्यसे " इति । तस्मै हिततमत्वेनोपदिश्यमानः प्राणः कथं परमात्मा न स्यात् नहि परमात्मनोऽन्यद् हिततममस्ति, परमानंदस्वरूपत्वात् । पापाभावश्च ब्रह्मविज्ञान एव " क्षीयते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे" इति श्रुतेः । प्रज्ञात्मत्वं च तस्यैव संभवति । उपसंहारेऽप्यानं दोऽजरोऽमृत इति, एष लोकाविपति रित्यादि च । तस्मात् सर्वत्रानुगमात् प्राणो ब्रह्म । चार सूत्रों से सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं, पहिले सूत्र में साधक (प्राण) के धर्मों का विवेचन है तथा तीन में बाधक का निराकरण किया गया है । प्राण परमात्मा ही हो सकता है, पूर्व और पर वाक्यों में पदार्थों का समन्वय ब्रह्मप्रतिपादन परक ही मिलता है । जैसे कि - उपक्रम में "वर मांगो" ऐसा प्रतर्दन ने इन्द्र से कहा और परम पुरुषार्थ के, वर के रूप में आक्षेप किया----"तुम्हीं मुझसे वह वर मांगो जो कि मनुष्य के लिए हिततम हो" इत्यादि । फिर हिततम रूप से प्रारण का ही उपदेश दिया, हिततम रूप से उपदिष्ट प्राण परमात्मा के अतिरिक्त दूसरा कौन हो सकता है ? परमात्मा से भिन्न कोई दूसरा हिततम नहीं हो सकता । क्यों कि वही अभाव भी बतलाया गया के कर्मों का क्षय हो जाता परमानंद स्वरूप है । ब्रह्म विज्ञान से ही पापों का है - " उस परावर ब्रह्म के देखे जाने पर इस जीव है" इत्यादि । प्रज्ञात्मत्व भी परमात्मा में ही संभव है । प्रकरण के उपसंहार में भी "आनंद अजर अमर" तथा "यही लोकाधिपति है" इत्यादि विशेषतायें प्रारण की बतलाई गई हैं, इस प्रकार सभी जगह ब्रह्म का ही प्रतिपादन मिलता है, इसलिए प्रारण ब्रह्म है । न वक्त रात्मोपदेशादिति चेदध्यात्मसंबन्धभूमा ह्यस्मिन् 1919|२८|| बाधकमाह, यदुच्यते प्राणो ब्रह्मति, तन्न, कुतः वक्त रात्मोपदेशात् । वक्ता हीन्द्र आत्मानमुपदिशति, "मामेव विजानीहि " इत्युपक्रम्य"प्राणो वा ग्रहमस्मि प्रज्ञात्मानं मामायुरमृतमित्युपास्व" इति स एष प्राणो वक्त रात्मत्वेनोपदिश्यमानः कथं ब्रह्म स्यात् ? तथा च वाचो धेनुवोपासनवद् देवतायाः प्राणत्वेनोपासना बोध्यते । श्रन्ये च ब्रह्मधर्माः प्रास्तावका इति कथमस्य ब्रह्मोपाख्यानत्वमिति चेत् ।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy