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तहिं जडो भवत्यानंदमयः ? न, आन्तरत्वान्न कार्यरूपो भवति, किन्तु कारण रूपः, स स्वमतेनास्त्येव, मतान्तरे प्रकृतिर्भवेत्, तनिवारयति
तो क्या जड प्रकृति प्रानंदमय है ? नहीं, सांख्यमतानुसार वह कार्यरूपा नहीं अपितु कारण रूपा है इसलिए उस मतानुसार तो हो नहीं सकती, हाँ शाक्तमत से अवश्य आनंदमय हो सकती है । उसका भी निराकरण करते हैं
कामाच्च नानुमानापेक्षा ।११।१७॥
जडा प्रकृतिर्नास्तीति कारणत्वेन निराकृतव, अर्थत द्वाक्यान्यथानुपपत्या सस्वपरिणामरूपा कल्प्यते, सा कल्पना नोपपद्यते, कुतः ? कामात्, प्रानंदमय निरूपणानंतरं सोऽकाम्यतेति श्रूयते । स कामश्चेतन धर्मः, प्रतश्चेतन एवानंदमय इति, चकारात्, स तपोऽतप्यतेत्यादि । अतोऽनुमान पर्यन्तमर्थबोधयद् वाक्यं न तिष्ठतीत्यर्थः ।
'सांख्यमत की जड प्रकृति तो आनंदमय हो नहीं सकती, "ईक्षतेन शब्दम्" इत्यादि सूत्रों में उसका निराकरण कर चुके हैं। "प्रियमेव शिरः" इत्यादि वाक्य में, प्रात्माशब्द से सत्व परिणाम रूपा शक्ति की कल्पना करते हैं, पर वह उपपन्न नहीं होती, क्योंकि-प्रानंदमय के लिए "सोऽकामयत" इत्यादि में कामना करने का उल्लेख आता है, कामना करना चेतन धर्म है, कामना करने वाला आनंदमय चेतन ही है । जडप्रकृति कैसे प्रानंदमय हो सकती है ? वकार का प्रयोग बतलाता है कि- “स तपोऽतप्यत्' इत्यादि निर्देश भी, प्रानंदमय की चतन्यता के ज्ञापक हैं। अतः सत्व परिणाम रूपा शक्ति के वषय में जो अनुमान किया गया वह “सोऽकामयत' इत्यादि वाक्य के समक्ष प्रधंबोधक रूप से नहीं ठहर पाता। अस्मिन्नस्य च तद्योगं शास्ति १।१।१८॥
इतश्च न जड अानंदमयः, अस्मिन्नानंदमये अस्य जीवस्य च आनंदमयगात्मानमुपसंक्रामतीति तेन रूपेण योगं शास्ति । फलत्वेन कथयतीति । नहि जीवस्य जडापत्तियुक्ता । ब्रह्म व सन् ब्रह्माप्येति इति वदस्याप्यर्थः तस्मानायं जीवो, नापि जडः, पारिशेष्याद् ब्रह्मवेति सिद्धम् । . .. इसलिए भी जड प्रकृति आनंदमय नहीं हो सकती कि इस आनंदमय में, जीव का भी प्रानंदरूप से योग बतलाया गया है, अर्थात् फलरूप से अनंद