________________
७४
निषेधमुखेन चतुःसूत्र्येदमेवाधिकरणं पुनर्विचार्यते सुदृढत्वाय । इदमत्राकूतम जीव एवानंदमयो भवतु, फलस्य पुरुषार्थत्वात् स ब्रह्मविदानंदमयो भवतीति स्वर्गादि सुखबदली किकमेवरूपमानंदमयं जीवस्य फलभूतम् इति प्राप्तेऽभिधीयते ।
निषेध की दृष्टि से इसी श्रधिकरण को, निश्चित रूप से निर्णय करने के लिए पुनः चार सूत्रों से प्रस्तुत करते हैं । अब यह भावना व्यक्त की जाती है कि- जीव ही श्रानंदमय हो सकता है, क्योंकि प्रसंग में जो फल का उल्लेख है, वह पुरुषार्थ रूप से है । ब्रह्मवेत्ता ही आनंदमय होता है, स्वर्गादि सुख की तरह, श्रानंदमय भी, जीव को प्राप्त अलौकिक फल ही है। इसका उत्तर देते हैं
तरोऽनुपपत्त ेः । १।१।१५।।
इतरो जीवः न श्रानंदमयो न भवति, कुतः ? श्रनुपपत्तेः, जीवस्य फलरूपत्वमात्रेणानंदमयत्वं नोपपद्यते । तथा सति तस्य स्वातंत्र्येण जगत्कत्तृत्वेऽत्यौकिक माहात्म्यवत्वेन निरूपणं नोपपद्यते श्रतो न जीव आनंदमयः ।
ब्रह्म से भिन्न जीवानंदमय नहीं हो सकता, जीव के संबंध में फलरूपता बतलाने मात्र से उसकी आनंदमयता उपपन्न नहीं हो सकती । जीव की नंदमयता मानने से, परमात्मा की जो स्वतंत्र रूप से जगत् सृष्टि संबंधी लौकिकता बतलाई गई है वह जीव में कैसे उपपन्न हो सकेगी ? इसलिए जीव श्रानन्दमय नहीं हो सकता ।
भेद - व्यपदेशाच्च ॥११॥१६॥
इतोऽपि न जीव आनंदमयः, यतो भेदेन व्यपदिश्यते "रसंह्य वायलब्धवाsनंदी भवति" इति । प्रानंदोऽस्यास्तीत्यानंदी, एषह्य वानंदयाति, आनंदयतीत्यर्थः । चकारात् सूत्रद्वयेन जीवो नानंदमय इति निरूपितम् ।
इसलिए भी जीव आनंदमय नहीं हो सकता कि "रसंयेवायं" इत्यादि में उसे स्पष्ट रूप से आनंदमय से भिन्न बतलाया गया है । जीव को आनंदी कहा गया है जिसका तात्पर्य होता है कि "यह आनंद है जिसमें वह आनंदी" यह आनंदमय ही जीव को आनंदित करता है, इसलिए जीव को आनंदी कहा गया । सूत्रस्थ चकार का अर्थ है कि दो सूत्रों से जीव की आनंदमयता का निषेध बतलाया गया है ।