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________________ की प्राप्ति बतलाई गई है। जीव को तो जड़ कह नहीं सकते "ब्रह्मवेत्ता होकर ही ब्रह्म को प्राप्त करता है" इत्यादि श्रुति ही जीव की चैतन्यता सिद्ध करती है । इसलिए न तो जीव शानंदमय है न जड प्रकृति ही है। अन्त में ब्रह्म ही आनंदमय सिद्ध होता है । ये पुनरधिकरणभंगं कुर्वन्ति, तेषामज्ञानमेव, यतस्तैरप्यानदमयः कः पदार्थ इति वक्तव्यम् । न तावज्जीवः, तस्य ब्रह्म ज्ञानफलत्वेन, ब्रह्मणाविपश्चितेत्यानंदमयस्योक्तत्वात् अथ जडः स्वर्गवत् तदा किमाश्रित इति वक्तव्यम्, जडाश्रितत्वे कर्म फलमेव स्यात् । ज्ञानस्याप्यवान्तरफल मिति चेन्न, तर्हि किमानंदात् तस्यातिरिक्त फलं भविष्यति । जडचिद्रूपतायाः पूर्वमेव विद्यमानत्वात् । अस्यैवानन्दस्यान्यानि भूतानि मात्रामुपजीवंतीतिश्रुतिविरोधश्च । जो पुनः अडंगा लगाकर अधिकरण को भंग करते हैं, वह भी उनका अज्ञान ही है, उन्हें भी आनंदमय कौन सा पदार्थ है, यह तो बतलाना ही पड़ेगा, जीव को तो कह नहीं सकते, क्यों "ब्रह्मपाविषश्चिता" इस वाक्य से मानंदमय को, ब्रह्म ज्ञान के फल रूप से बतलाया गया है। यदि कहा जाय कि-स्वर्ग के समान आनंदों से युक्त जड़ प्रकृति भो आनंदमय है, तो प्रश्न उठता है कि-इस पानंदमय जड प्रकृति का प्राश्रय कौन है ? यदि जड़ प्रकृति को स्वयं ही अपना प्राश्रय मान लें तो आनंदमय केवल फलमात्र ही रह जायगा । यह नहीं कह सकते कि ज्ञान भी उसका अवान्तर फल हो सकता है, यदि ऐसा कहोगे तो, आनंद के अतिरिक्त भी कोई होगा क्या ? संसार दशा में जड़ रूपता तथा ब्रह्म ज्ञान दशा में प्रहिले से ही चिपना के रहने से फलत्व की बात सिद्ध नहीं होती (अर्थात् आनंदमय की विकारता स्वीकारने से फल बोधक श्रुति का विरोध उपस्थित होता है) तथा “इसी आनंद के अंश्च से अन्यान्य भूत उपजीवित होते हैं" इस श्रुति से विरोध भी होता है। पुच्छत्वेन ब्रह्मवचनात् प्रद्वष इति चेत् । तर्हि "स एको ब्रह्मण आनंद" इत्यत्रापि षष्ठ्या भेद निर्देशात् ब्रह्मणः परम पुरुषार्थत्वं नाङ्गी-कुर्यात् । उपक्रमादि सर्वविरोधश्च पूर्वबेव प्रतिपाविनः यदप्यधिकरणमन्यन्यारचितं "ब्रह्म पुच्छम्" इति, तत्र न पुच्छास्य ब्रह्मत्वं प्रतिपाचते, येनान्यथा समाधान
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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