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________________ रूपत्वं "त्वेतस्यवानंदस्यान्यानि भूतानि मात्रामुपजीवंति, रसो वै सः, रसं हवायं लब्ध्वानंदीभवति, को ह्यवान्यात् कः प्राण्यात् यदेष आकाश आनंदो न स्यात्, एष ह्येवानंदयति ।" इत्यादि श्रुतिभिनिर्णीयते, एवं सति तदेकवाक्यातायै प्रकृतोऽप्यानंदमयशब्दः तद्वाच्येवेति मंतव्यम्, अन्यथा "अानंदमयादन्योऽन्तर आत्मा" इत्येव वदेत् । (वाद) उक्त वाक्यों के आनंदमय के उल्लेख में हमें कोई भी ऐसा प्रमाण नहीं मिलता जिसके आधार पर आपका किया हुआ सूत्रार्थ स्वीकारा जा सको धादि सभी जगह प्रात्मा रूप से प्रानंदमय की स्थिति स्वीकार कर लें तो वह प्रानंदमय में भी तो स्वयं आत्मा होगा, फिर "तस्यैष एव" इत्यादि क्यों कहा गया ? "अयमेव पूर्वस्यात्मा" कहना चाहिए था, इसलिए आनंदमय परतत्त्व नहीं समझ में आता। समाधान करते हैं-ईश्वर के अतिरिक्त कोई दूसरा सभी का सर्वान्तर्यामी आत्मा नहीं हो सकता, उसकी प्रानन्दरूपता इस जागतिक अानन्द के रूप में समस्त वितरित है, सभी जागतिक पदार्थ उसी के अंश से स्फुरित हैं। "वह रस स्वरूप है, उसे प्राप्त कर ही सारा जगत आनन्दित होता है, उसके अतिरिक्त जगत में और दूसरा क्या है ? इसके अतिरिक्त दूसरा कौन जगत का प्राण हो सकता है ? यह जो अ.काश है वह प्रानन्द नहीं है, यह परमात्मा ही उसे पानन्दित करता है" इत्यादि श्रुतियों से उक्त बात निश्चित हो जाती है। इससे यह मानना चाहिए कि समरत वाक्यों की एकवाक्यता दिखलाने के लिए प्रयुक्त वह आनन्दमय शब्द परतत्त्व का ही वाचक है, यदि ऐसा न होता तो "आनन्दमय से अतिरिक्त अन्तरात्मा है" ऐसा स्पष्ट उल्लेख होता। - ननूक्तमाध्यात्मिकानामेवात्र निरूपणादित्यादीति चेन्न, उक्तरीत्याऽधिदैविकम्यैवान्ते निरूपणात् । अत एव भार्गव्यां विद्यायामपि भृगोरन्नमयादिज्ञानानन्तरमपि पुनर्बह्मजिज्ञासोक्ता, नत्वानन्दमयज्ञाने, नहि भृगोराध्यात्मिकज्ञानाथं प्रवृत्तिः, किन्तु ब्रह्मज्ञानार्थमेव । अधीहि भगवो ब्रह्मति प्रश्नवचनात् । . . . . . . ... किंच ब्रह्मविदाप्नोति परमित्युपक्रमादन्ते शेयानन्दगणतामुक्तवा
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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