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नन्वेतदतिरिक्त चेत् ब्रह्म स्यात् तदानंदमयादन्योऽन्तरात्मा ब्रह्म त्यपि वदेत् । नत्वेवमतोऽयं पर एवेति चेन्न, आध्यात्मिकरूपाणामेवात्र निरूपणात् तेषां च पंचरूपत्वात् तावतामेव निरूपणमतोऽस्माद् अन्य एव पर इति प्राप्ते प्रतिवदति "प्रानंदमयोऽभ्यासात् ।" आनंदमय शब्द वाच्यः पर एव, कुतः ? अभ्यासात्, "तस्यैष एव शारीर आत्मा यः पूर्वस्ये" त्यन्नमयादिषु सर्वत्रैवात्मत्वेनानंदमयस्य व कथनात् ।
(वाद) आनंदमय के संबंध में भी जो पक्षी स्वरूप का वर्णन किया गया है, वह चरम स्वरूप नहीं है अपितु पूर्वोक्त स्वरूपों की तरह प्रतिशयित धर्मवान् विभूतिरूप ही है । सिर पक्ष आदि अवयवों की प्रानंदरूपता कहने से उसे परमात्मा भी नहीं कह सकते, अन्नमय आदि में जैसे अवयवों की तद्रूपता है आनंदमय में भी वैसी ही समझनी चाहिए । अवयवों की अवयवी से स्वाभाविक भिन्नता होती है इसलिए अवयव को शारीर आत्मा नहीं कहा जाता । पूर्वोक्त जो पक्षी रूप शरीर है उससे संबंधी शारीर आत्मा उससे भिन्न प्रतीत होता है, परब्रह्मत्व और उसके अंगों का आत्मत्व किसी भी श्रुति से सम्मत नहीं है, अपितु विरुद्ध है। यदि कहें कि वह ब्रह्म इस जगत से अतिरिक्त वस्तु है, तो यह भी मानना होगा कि आनंदमय से अतिरिक्त अन्तरात्मा रूप ब्रह्म है । वह ऐसा नहीं है, उससे भी परे है, यह भी नहीं कह सकते । उक्त प्रपाठक में ब्रह्म के आध्यात्मिक रूपों का ही निरूपण किया गया है, उसके अवयव पांच प्रकार के बतलाये गये हैं, परतत्त्व तो इस स्वरूप से भिन्न ही है।
इस कथन का प्रतिवाद करते हए सूत्रकार-"आनंदमयोऽभ्यासात्" सूत्र कहते हैं । उनका कथन है कि प्रानंदमय परतत्त्व ही है, उसी को बारबार शास्त्रों में ब्रह्म के लिए प्रयोग किया गया है । वही शारीर आत्मा है । पूर्वकथित आनंदमय प्रादि में मात्मा के रूप से मानन्दमय का ही उल्लेख किया गया है जिससे प्रानंदमय ही परतत्व निश्चित होता है।
ननु न किंचिन्मानमत्र पश्यामः, किंच आनंदमयस्यैव सर्वत्रात्मत्वेन कथने आनंदमयेऽपि तस्यैष एवेत्यादि न वदेदयमेव पूनस्यात्मेति वदेदतो नानन्दमयः पर इति चेत् ।
उच्यते, नहीश्वरादन्यः सर्वेषामेक प्रात्मा भवितुमर्हति । तस्यानंद