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________________ ३४ कारण नहीं है, इसलिए कर्म और ज्ञान को परस्पर उपयोगी मानने में दोष नहीं है । क्रिया और ज्ञान दोनों स्वतंत्र मोक्षोपयोगी साधन हैं, इसलिए दोनों की पृथक्-पृथक् मीमांसा की गयी है। किंच वेदांतवाक्यानामस्मिन् शास्त्रे समन्वय एव प्रतिपाद्यते संदेहनिराकरण द्वारा, तत्कथं सिद्धवद्हेतुत्वेन निर्देशः अग्रिमवैयर्थं च स्यात् । नच प्रितज्ञागर्भ हेतुत्वम् अनुपयोगात्, गौणमुख्यभावे पर विवादः। नच येन रूपेण समन्वयो मतान्तरस्थः विचारितस्तथाने सूत्रेषु निर्णयोऽस्ति । शास्त्रारम्भस्तु प्रथम सूत्र एव समथितः। तस्मात् समवायिकारणत्वमेवानेन सूत्रेण सिद्धम् । ननु कारणत्वमेवास्तु ब्रह्मणः किं समवायिकारणत्वेन, विकृतत्वं च स्यात् अनर्थरूपत्वेन कार्यस्यायुक्तता च, तस्मादनारम्भरणीयमेवैतत् सूत्रमिति चेन्मवम् सर्वोपनिषत्समाधानार्थ प्रवृत्तः सूत्र कारः, तद् यदि ब्रह्मरणः समवायित्वे न ब्रूयाद् भूयानुपनिषद्भागो व्यर्थः स्यात् । “इदं सर्व यदयमात्मा, मात्मैवेदं सर्वम्, स सर्व भवति ब्रह्म तं परादात्, य आत्मानं स्वयमकुरुत, एकमेवाद्वितीयम् वाचारम्भणं विकारः" इत्यादि वाक्यानि स्वार्थे बाधितानि भवेयुः। इस उत्तर मीमांसा में कत्र्तृत्व भोक्त त्व प्रतिपादक वेदांत वाक्यों का समन्वय संदेह निवारण पूर्वक ब्रह्म में ही किया गया है, यदि ऐसा न होता तो सूत्रकारं उनका निर्देश निश्चित सिद्ध वस्तु की तरह कैसे करते ? साथ ही उनकी अग्रिम भूमिका ही व्यर्थ हो जाती तथा उसके फलस्वरूप होने वाला प्रतिज्ञागर्भित समन्वय भी न हो पाता। फिर कर्मवाद के निराकरण की उपयोगिता ही क्या होती? वस्तुतः वेदांत वाक्यों के विषय में जो विवाद है वह गौण मुख्य भाव परक तो है ही (अर्थात् पूर्वमीमांसक कर्मपरक वाक्यों को मुख्य, इतर को गौण तथा उत्तरमीमांसक ज्ञानपरक वाक्यों को मुख्या, इतर को गौण मानते हैं) । शंकर आदि प्राचार्यों ने जिस प्रकार के समन्वय का विचार किया है, वह "ईक्षते!शब्दम्" इत्यादि सूत्रों से सुसंगत नहीं होता। शास्त्रारंभ तो प्रथम सूत्र में ही हो चुका है इसलिए इस (तत्त समन्वयात्) सूत्र से समवायिकारणता की सिद्धि की गई है, ऐसा निश्चित होता है । - यदि कहें कि समवायिकारणता मानने में कौन सा उत्कर्ष होता है ? अपितु विकृति ही होती है, कार्य में प्रानर्थक्य होने से, ब्रह्म के कार्य में प्रयुक्तता ही होती है। इसलिए यह सूत्र संमवायिकारण को 'प्रतिपादक नहीं है इत्यादि । उक्त कथन असंगत हैं, सूत्रकार उपनिषदों के समाधान के लिए ही प्रवृत्त हुए थे, पर यदि वे ब्रह्म की समवायिता न बतलाते तो
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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