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________________ नहि उपाख्यानानां मिथ्यार्थत्वं बुद्धजन्मनः पुरोक्त युक्त वा, तथा सति वेदानामप्रामाण्यमेव स्यात्, मिथ्योपाख्यानप्रतिपादकलोकवत् । तस्मात् पूर्वमीमांसानभिज्ञाः क्रियापरत्वं सर्वस्यापि वेदस्य वदन्तो मूर्खा एव । उत्तरवा दिनोऽपि पूर्वाज्ञानमंगीकृत्य पूर्वानुपयोगित्वं ब्रह्मज्ञानस्य वदन्तो वेदानभिज्ञाः, "यदेव विद्यया करोति श्रद्धयोपनिषदा वा तदेव वीर्यवत्तरं भवति" इति उपनिषज्ज्ञानस्य श्रुतिसिद्धव कारणता, नच बाधितत्वात् त्यज्यत इति वाच्चम्, ब्रह्मात्मज्ञानवदेव वशिष्ठादेर्यज्ञाधिकारात् । न चैवं किमनेनेति वाच्यम्, इत्थंभूतत्वाद्यज्ञस्य । किंच कर्मफलक्त् ब्रह्मफलस्यापि लौकिकत्वात् । “य एवं वेद प्रतित्तिष्ठति, अन्नवानन्नादो भवति, महान् भवति, प्रजया पशुभिः ब्रह्मवच सेन महान् की|" इति । अत्यन्ताविज्ञानवतो यज्ञानधिकारात् तन्निषेधार्थ ज्ञानमुपयुज्यते, न च देहाध्यासस्य कारणत्वं 'ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविः' इत्यादि स्मृतेः । तस्मादन्योन्योपयोगित्वे न कोऽपि दोषः। क्रियाज्ञानयोः स्वातंत्र्येण पुरुषार्थसिद्धयर्थं भिन्नतया शास्त्रप्रवृत्तिः । वैदिक उपाख्यानों को बुद्ध जन्म के पूर्व किसी ने भी मिथ्या नहीं कहा, मिथ्या कहना संगत भी नही है, यदि ऐसा कहेंगे तो वेद अप्रामाणिक हो जावेंगे, जैसे कि लोक में कपोलकल्पित दंतकथाएं अप्रामाणिक होती हैं । पूर्वमीमांसा के तत्त्व न जानने वाले मूर्ख ही समस्त वेद का तात्पर्य क्रिया परक बतलाते हैं । इस उत्तर काण्ड में, विवाद करने वाले जो कर्माधिकार में ज्ञान को अनावश्यक मानकर यज्ञादि कर्म को ब्रह्मज्ञान में अनुपयोगी बतलाते हैं, वे भी वैदिक रहस्य को नहीं जानते । “यदेव विद्यया करोति" इत्यादि में उपनिषद् ज्ञान की कर्मसहकारी कारणता सिद्ध है। ब्रह्मज्ञानियों को देहादि अध्यास का प्रभाव हो जाने से उनके लिए कर्म त्याज्य है, ऐसा भी नहीं कहना चाहिए। ब्रह्मात्मज्ञान की तरह ही वशिष्ठ आदि की यज्ञ में अधिकारपूर्ण दक्षता थी, इससे सिद्ध होता है कि ब्रह्मात्मज्ञानी को भी दृढतापूर्वक अनुष्ठान करना चाहिए। यह भी न कहना चाहिए कि कर्मानुष्ठान की क्या आवश्यकता है ? यज्ञानुष्ठान में कर्म की उपयोगिता है, कर्मफल के समान ब्रह्मज्ञान का फल भी लौकिक है । जैसा कि "जो ऐसा जानकर स्थिर रहता है, वह अन्नवान्, अन्नाद होता है, महान होता है, प्रजा पशु ब्रह्मज्ञान आदि से सम्पन्न होता है ।" इस श्रुति से ज्ञात होता है कि अत्यंत अज्ञानी व्यक्ति का यज्ञ में अधिकार नहीं होता, उसके लिए शान उपयोगी है । "ब्रह्मार्पणं, ब्रह्महविः" इत्यादि से स्पष्ट होता है कि देहाध्यास भी
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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