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________________ ३५ उपनिषदों का बहुत सा भाग ही व्यर्थ हो जाता तथा "इदं सर्वं यदयमात्मा, श्रात्मैवेदं सर्वम्" इत्यादि वाक्य वास्तविक तत्त्व के बाधक होते । नन्वेवं निःसंदिग्धत्वात् कथं सूत्र प्रवृत्तिः ? उच्यते, अस्थूलादि वाक्यान्यपि संत सर्वत्र प्रपंचतद्धर्न वैलक्षण्य प्रतिपादकानि ततोऽन्योन्यविरोSatta मुख्यार्थबाधो वक्तव्यः, तत्र स्वरूपापेक्षया कार्यस्य गौणत्वात् प्रपंच रूपप्रतिपादकानामेव कश्चित् कल्पयेत्, तन्माभूदिति जन्मादिसूत्रवत् समन्वयसूत्रमपि सूत्रितवान् । तथा चाऽस्थूलादि गुणयुक्त एवाविक्रियमाण एवात्मानं करोतीति वेदान्तार्थः संगतो भवति, विरुद्ध सर्व धर्माश्रयत्वं तु ब्रह्मणो भूषरणाय । प्रश्न हो सकता है कि जब ब्रह्म की समवायिकारणता श्रुति से सिद्ध ही थी, संशय का कोई स्थान तो था नहीं, तो सूत्रकार की सूत्र बनाने की प्रवृत्ति क्यों हुई ? यद्यपि ब्रह्म की समवायिता असंदिग्ध है, फिर भी ब्रह्म के धर्म की विलक्षणता के प्रतिपादक" अस्थूल" प्रादि वाक्यों से अन्योन्य विरोधी प्रतिपादन द्वारा अभिधार्थ में बाधा उपस्थित होती है ।" निष्कलं शान्तम्" इत्यादि प्रतिपाद्य ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप की अपेक्षा "ऐतदात्म्यमिदं सर्वम्" इत्यादि कार्य ब्रह्म के स्वरूप प्रतिपादक वाक्यों के गौरण होने से प्रपंचात्मक ब्रह्म रूप के प्रतिपादक वाक्यों की मुख्यार्थबाधक कल्पना होती है । वैसी कल्पना न हो, इसलिए समन्वयसूत्र की रचना, जन्मादि सूत्र की तरह की गयौ [अर्थात् कार्यं ब्रह्म और प्रकृति आदि की कारणता के निरास और ब्रह्म की कारणता व्यवस्थापन के लिए जैसे जन्मादि सूत्र की रचना हुई, वैसे ही इस सूत्र की भी समवायिकारण की व्यवस्थापना के लिए रचना हुई है ] । अस्थूल श्रादि विलक्षण गुण वाला ही विकृत स्वयं की रचना करता है, ऐसा अर्थ मानना संगत है, विरुद्ध विलक्षण धर्मों की श्राश्रयता ही ब्रह्म का भूषण है । fire अन्यपदार्थ सृष्टी वैषम्यनं घृण्ये स्याताम्, कर्माधीनत्वे तु अनीशता, ततः कत्त्वमपि भज्येत्, ततः सर्व माहात्म्यनाश एव स्यात् । नन्वेवमेवास्तु अपवादार्थत्वात्, रज्जुसर्प वदयुक्तार्थं कथनेऽपि न दोषः "सर्व समाप्नोषि ततोऽसि सर्व " इति स्मृतेश्चेति चेत् मैवम्, तथा सति पाखंडित्वं स्यात् । एतादृशशास्त्र अर्थागीकर्तु रासुरेषु भगवता गणितत्वात् "प्रसत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्, अपरस्पर संभूतं किमन्यत् काम हैतुकम्" इति । शास्त्रानर्थक्यं चासत्रं समाप्रोषीत्यप्यसंगतं स्यात्, वस्तु परिच्छे 1
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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