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(६२ ) देती है और जब उसकेखयाल पुखता होजाते हैं तब फिर उसको मूर्तिके दर्शन करने की कुछ जरूत नहीं रहती चुनाचे ऋषियों और मुनियों के लिये मूर्ति पूजन करना जरूरी नहीं है
और यह भी कहते हैं गुडियों के खेलवत् अर्थात् जैसे छोटी छोटी वालिका (कुड़ियां) गडीयों के खेल में तत्पर हो के गहने कपड़े पहराती हैं और व्याह करती हैं परंतु जब वे स्यानी बुद्धिमती होजाती हैं तब उन गुड़ीयों को अवस्तु जानके फैंक देती हैं ऐसेही जबतक हम लोगोंको यथार्थ तत्त्वज्ञान न होवे तबतक मूर्ति में तत्पर होकर अर्थात् दिल से प्रेमकर२ न्हावावें धवावें खिलावें (भोगलगावें) शयन करावें जगावे इत्यादि पूजा भक्ति करें।
उत्तरपक्षी-क्योंजी गुडीयोंका खेल उन लड़