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( १३२ ) दया धर्म का नाश करादिया है उन आचार्यों को पूर्वका सहस्रांश भी नहीं आता था तो उन के वनाये ग्रंथ सम सूत्र कैसे माने जायें। पूर्वपक्षी-तुम नियुक्तिको मानते होकि नहीं,
उत्तरपक्षी-मांनते हैं परन्तु तुम्हारी सी तरह पूर्वोक्त आचार्यों की वनाई नियुक्तियों के पोथे अनघड़ित कहानिये सूत्रोंसे अमिलत गपौड़ों से भरे हये नहीं मानते हैं, यथा उत्तराध्ययन की नियुक्ति में गौतमऋषि जी सूर्यकी किणों को पकड़ के अष्टा पद पहाड़पर चढ़ गये लिखा है आवश्यक जी की नियुक्ति में सत्यकी सरीखे महावीर जी के भक्ता लिखे हैं इत्यादि वहुत कथन हैं क्योंकि जब इन पीताम्बरी मूर्ति पूजकों से कोई भोला मनुष्य जिसने सूत्रके तुल्य क्रिया करने वाले विद्वान् साधु कीसगत