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( १३१ ) उक्त आगम विहारियों के बनाए हुए हैं और जो रत्न सार शत्रुजय महात्म्य आदि तथा १४४४ वा कितने ही ग्रंथ हैं वह सावधाचार्यों के वनाये हुए हैं जिन्हों में साल संवत् का प्रमाण और कर्ता का नाम लिखा है अर्थात् पूर्वोक्त आगम विहारी आचार्यों के वनाये हुए नहीं है, थोड़े काल के वनाये हुए हैं उन में सावद्य व्यवहार पर्वत को तोड़ कर शिलाओं का लाना पंजावे का लगाना आदि आरंभ को जिनाज्ञा मानी है, अर्थात् सम्यक्त्व की पष्टि कहते हैं, और जिन्होंमें केलों के थंभ कटा के बागों में से फूल तुड़वाके मंडप मंदिर बनवाने जिनाज्ञामानी है, जिन ग्रंथों के मान ने से श्री वीतराग भाषित परम उत्तम दया क्षमा रूप धर्म को हानि पहुंचती है, अर्थात् सत्य