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( ७४ ) इस विधि से इस सामग्री से पूजाकरी वा यात्रा करी इत्यादि कथन कहीं नहीं चला यथा प्र. देशी राजा को केशीकुमारजीने धर्म बताया श्रावक व्रत दिये वहां दयादान तपादि का करना बताया परञ्च मंदिर मूर्ति पूजा नहीं बताई न जाने सुधर्म स्वामीजीकी लेखिनी(कल्म) यहां ही क्योंथकी हा इतिखदे परंतु हे भव्य इस पूर्वोक्त कथन का तात्पर्य यह है कि वह जो सूत्रों में नगरियों के वर्णन के आद में पूर्ण भद्रादि यक्षोंके मदिर चले हैं सो वह यक्षादि सरागी देव होतेहैं और बलि वाकुल आदिक की इच्छा भी रखते हैं और राग द्वेष के प्रयोग से अपनी मूर्ति की पूजाऽपूजा देखके वर शराप भी देतेहैं ताते हरएक नगर की रक्षा रूप नगर के बाहर इनके मंदिर हमेशा से चले