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सासरा नै कैया केवटस्यु
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मध्य पु०
कोई राजकवारी
थारा चितराम कोर-कोर
दूतिया ने दिखाती होसी कामण' करती होसी
(जागती जोत, पृ० ३७) निष्कर्षत इन रूपो के विषय में कहा जा सकता है कि इनमे पूर्णत अपभ्रश की ही परपरा प्रवहमान है ।
अपभ्रश मे आज्ञार्थ मध्यम पु० एकवचन और बहुवचन मे इ, उ और एका वैकल्पिक प्रयोग 'हि स्वयोरिदुदेत्' सूत्र द्वारा निर्दिष्ट है । प्राचीन पचिश्मी राजस्थानी मे यह 'इ' अन्तवाला होता है । कविता मे 'ए' वाले रूप भी मिलते हैं । अउ या उ वाले रूप मध्यम पुरुष बहुवचन माध्यमिक राजस्थानी मे
मे
प्रयुक्त होते है ।
मे मिलते है ।
प्रयुक्त होते है ।
विध्यर्थ
प्राकृत अपभ्रंश का राजस्थानी भाषा पर प्रभाव ३२६
आधुनिक राजस्थानी मे अकारान्त रूप
थू भण
11
एक व०
31
मूक, मूकि, मूकहि
73
X
प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे विध्यर्थ तीनो पुरुषो मे मिलता है ।
अन्य पुरुष एक व ०
ચે, ખોળે
मध्य
करिजे, जाणिजे, जोजे
व० व०
मूकी
11 12
ब० व०
एक व०
अज्ये, अजो वाले रूप मिलते है | लासेन
उत्तम,” मारवाडी मे 'अजइ, ईजइ, ने इनकी व्युत्पत्ति संस्कृत विध्यर्थं से सकेतित की है । टेसीटोरी के अनुसार यह प्राचीन प्राकृत मे भी रही है । प्राकृत वैयाकरणो ने होज्जइ, होज्जसि जैसे रूपो का आख्यान किया है । टेसीटोरी प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी के 'हुजिॐ' की व्युत्पत्ति अपभ्रंश के होज्जउँ से मानते है, तथा इमे होज्जामि के समकक्ष प्रतिपादित करते हैं । अर्द्धमागधी और जैन महाराष्ट्री प्राकृत मे 'होज्जामि' का प्रयोग होता रहा है । प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी के अन्य रूपो का विकाससूत्र निम्नलिखित है-
था भणौ
सुणजो, करज्यो, जाज्यो
हुजिउँ