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३१४ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
स्थान पर 'ए' होता है, यथा दइएँ । दई मे एँ करण एकवचन का सूचक है। सूत्र मे 'एँ' के ' का निर्देश नहीं है।
२ आट्टोणानुस्वारी अपभ्र श मे तृतीया एकवचन मे 'ण' और अनुस्वार आदेश होते है।
३ एँ चेदुत इकारान्त और उकारान्त शब्दो के परे तृतीया एक० व० की विभक्ति टा' को 'एँ आदेश होता है। 'च' से सून सख्या दो का भी ग्रहण किया जाएगा। इसका तात्पर्य यह हुआ कि 'अग्गि' जैसे प्रातिपदिक के तीन रूप हो सकते है अग्गिएँ, अग्गिण और अगि। ध्यातव्य है कि एँ, ण औरतीनो मुक्त वितरण (Free distribution) मे है । मूल शब्द मे रूप स्वनिमिक (Morphophonemic) परिवर्तन नही होता। किन्तु उकारान्त मे यह परिवर्तन होता है, वायु से वाएँ बनता है। ४ ट ए स्त्रीलिए शब्दो मे 'टा' को एँ आदेश होता है--
चन्द्रिमा+टा+चन्द्रिम+एँ→ चन्द्रिमएँ ५ भिस्सुपोहि तृतीया बहुवचन की विभक्ति भिस् पर होने पर हिं' आदेश होता है, शब्द के अत मे कोई भी स्वर हो सकता है।
गुण | भिस्→गुहि ६ भिस्येद्वा- सज्ञा शब्द के अन्त्य 'अ' को तृतीया व० व० की विभक्ति परे रहते विकल्प से 'ए' होता है गुण + भिस् → गुणे। इस प्रकार तृतीया के वर्धा रूपिम टा के निम्नलिखित सहरूपिम होग
अन्त्य 'अ' पु० ए० व० के परिवेश मे एँण - इ और उ पु० ए० व० के परिवेश मे
स्त्रीलिा एक० व० के परिवेश मे
व० व० मे किसी भी स्वर के परिवेश मे प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे करण कारक एकवचन के दो विभक्ति चिन मिलते है इँ (इ) और 3 ( ---इहिं) । प्रथम का विकास अपभ्र श के एँ से माना गया है, द्वितीय का प्राकृत 'एहिं' से, अपभ्र श मे प्राकृत एहि' का 'हिं' ही रह गया है। टेसीटोरी के अनुसार प्रथम का प्रयोग नियमत स्वरान्त प्रातिपदिको के साथ ही होता है, दूसरे का प्रयोग विरल है। व्यजनान्त प्रातिपदिको के साथ 'हि' का प्रयोग अधिक प्रचलित है। कभी-कभी ये प्रातिपदिक विभक्ति से मुक्त भी होते है । प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी के उदाहरण निम्नलिखित है
पसाई (शालिभद्र च७५६) पाई (दशवकालिका सूत्र) राई (उपदेशमालाबालाववोध) पायीहुँ (पचाख्यान)