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प्राकृत-अपभ्रंश का राजस्थानी भाषा पर प्रभाव ३१३
४. नागण जाय। चीटला, सीहण जाया साव
राणी जाया नहँ एक, सो कुल वाट सुभाव (दोहा-४०) इस प्रकार माध्यमिक राजस्थानी और आधुनिक राजस्थानी मे कर्ता और कर्म एकवचन तथा बहुवचन मे शून्य विभक्ति के साथ ही मिलते है । शून्य विभक्ति का कार्यफलन गणित के शून्य सदृश है। जसे शून्य के योग से अक मे कोई अतर नहीं आता वैसे ही शून्य विभक्ति के योग से प्रातिपदिक अप्रभावित रहता है। वस्तुत शून्य विभक्ति की परिकल्पना नियम पालनार्य है। पाणिनि ने इस परिकल्पना का सूत्र-विन्यास किया था । आधुनिक राजस्थानी का निम्नलिखित उदाहरण इस दृष्टि से उल्लेखनीय है
ओ भूडो बगत दिन रात हार ५सवाई मे
रसोली ज्यू कुल (जागती जोत, पृ० ४७) कर्ता 'बगत' पुल्लिा एक व० विभक्ति रहित है।
रात धनख डोर ज्यू तरणाव रीस मे भरियोडी
(वही-पृ० ४८) रात' स्त्रीलिंग एक० व० भी विभक्तिरहित है।
अतएव यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि राजस्थानी के विकास स्तरो मे अपभ्र श की स्यम्-जस्-शसा लुक प्रवृत्ति ही चली। स्यमोरस्यात्' सूत्र का विधान बहुत कम पाया जाता है। प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी में भी स्त्रीलिंग शब्द विभक्ति रहित प्रयुक्त हुए है। नपुसक लिंग शब्द लिगा सकोचन के कारण पुल्लिगवत् रूप रचना वाले होते है। इनमे प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे अपभ्र श का ॐ मिलता है, पर कालान्तर मे यह भी लुप्त हो गया । ०५जनान्त प्रातिपदिक और 'इ', 'ई', 'उ' और 'ऊ' अन्त वाले प्रातिपदिक तथा स्त्रीलिंग प्रातिपदिक निविभक्तिक ही प्रयुक्त हुए मिलते हैं। अपभ्र श और प्राचीन પશ્વિમી રાખસ્થાની કી યહી પ્રવૃત્તિ માધુનિક વાનસ્થાની ને પાઉં નાતી. है। वस्तुत यह भी सरलीकरण की प्रक्रिया का ही प्रतिदर्श है। इस प्रकार अपभ्रश मे कर्ताकारक के रूपिम 'सि' के योग से सज्ञा शब्दो के अन्त्य स्वर मे परिवर्तन होता है। यह परिवर्तन 'सि' रूपिम और शब्द के अन्त्य स्वर मे सधि के कारण नहीं होता । हेमचंद्र ने कर्ता का चिह्न 'सि' माना है, जैसे पाणिनी ने 'सु' माना है । आधुनिक भाषाविज्ञान की शब्दावली मे 'सि' बद्ध रूपिम है। शून्य इसी 'सि' का सहरूपिम है। आधुनिक राजस्थानी मे इसी सहरूपिम का प्रचलन रह गया है, अन्य सहरूपिम काल के प्रवाह मे लुप्त हो गए है।
अपभ्रंश मे करण कारक के लिये ६ सूत्र हेमचंद्र ने दिए है--- १ एट्टि अपभ्र श मे तृतीय एकवचन के रूप मे सज्ञान के अन्त्य 'अ' के