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आचार्य श्री कालूगणी : व्यक्तित्व एवं कृतित्व : ३
स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन और श्रम की आच मे पका हुआ जीवन कालू के लिए वरदान हो रहा था। पर केवल वरदान या केवल अभिशाप विश्व-व्यवस्था के अनुकुल नही है। उसमे वरदान और अभिशाप दोनो एक साथ चलते है।
कालू तीन माह का हुआ, उसके पिता मूलचन्दजी का अचानक वि० स० १९३४ मे देहावसान हो गया। छोगाजी को इससे गहरा आघात लगा। पर कालू के मुख को देख-देख उस प्रचण्ड वज्रपात को झेलने में समर्थ हो गई।
छोगांजी के पिता का नाम था नरसिंहदास लूणिया। उनके छ पुन और तीन पुत्रिया थी। छोगाजी उन सबसे छोटी थी। नरसिंहदासजी कोटासर मे रहते थे। वि० स० १९४० मे वे डूगरगढ मे वस गए। छोगा जी बहुधा अपने पीहर मे रहने लगी। वहा साधु-साध्वियो का सुयोग सहज सुलभ था। वे साधु-साध्वियो के पास जाती थी। कालू भी उनके साथ-साथ जाता था। उस शिशु के मन मे धर्म के प्रति अनुराग जागृत हो गया। भावी जीवन का वीज कुछ-कुछ अकुरित होने लगा । कालू मा का इकलौता बेटा था । मा की सारी ममता उसे प्राप्त थी। पति के देहावसान के बाद वह और सधन हो गई। छोगाजी के लिए इस नश्वर ससार मे वही सब कुछ था । इसलिए उसके लालन-पालन में उनकी सारी गक्ति लग रही थी।
कालू पाच वर्ष का था। तव आखें दुखने लगी। पन्द्रह दिन तक बहुत कष्ट रहा । आखें खुली ही नही । छोगाजी बहुत चिन्तित हो गई। अचानक एक योगी घर पर आया। उसने कहा-माताजी। फराश की लकडी घिसकर बच्चे की आख मे आज दो। आखें ठीक हो जाएगी। छोगाजी ने वह उपचार किया। आखें ठीक हो गई। ____ उन दिनो अध्यापक बच्चो की पिटाई करने मे स्वतन्त्र थे। मा नही चाहती थी कि मेरे शिशु के शरीर पर किसी का क्रोध से उठा हाथ लगे। इसलिए छोगा जी ने कालू को पढने के लिए स्कूल नहीं भेजा। कालू ने अपने मामा के पास ही थोडी-बहुत पढाई की।
मा की ममता कभी-कभी सीमा पार कर जाती है। बच्चे का मन खेलकूद मे लगता है । और, जो बचपन मे खेलने-कूदने नहीं जाता, वह कमजोर रह जाता है। पर छोगाजी कालू को खेल-कूद मे भी नहीं जाने देती। यह बच्चा है, कही हाथ-पैर मे चोट न लगा ले, यह आशक्षा बनी ही रहती। जब मा घर पर नही होती, तव साथी बच्चे खेलने के लिए कालू को बुलाते, १२ मा को पूछे बिना कालू घर से बाहर नही जाता । कालू के शैशव का पूर्वार्द्ध मा की ममता भरी उगलियो के सरक्षण मे बीता । सस्कारो का वैभव दिन-प्रतिदिन समृद्ध होता गया।