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४ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
सवोधि
साध्वीश्री मृगाजी के मत्मग मे छोगाजी मे वैराग्य का अकुर फूट गया । उनका मन सामारिक विषयों से उदामीन हो गया - वे साध्वी दीक्षा के लिए तैयार हो गई । कालू अभी अवस्था मे छोटा था, केवल आठ वर्ष का था । वे चाहती थी कि हम दोनो साथ ही दीक्षित हो। उन्होने एक दिन कहा पुत्र मेरा तुम्हारे प्रति और तुम्हारा मेरे प्रति अति स्नेह है । मैं तुम्हे एक क्षण के लिए भी छोड़ना नही चाहती और तुम मुझे छोडना नहीं चाहते । पर कुछ वडे होने पर तुम्हे कमाई के लिए परदेश जाना होगा। फिर हम साथ नही रह सकेंगे । 'मा' ऐसा कोई उपाय है, जिससे हम निरन्तर साथ रह सकें ?"
'इसका उपाय है, पर बहुत कठिन है बेटे ! '
'वह क्या है माँ | मैं उसे जानना चाहता हूँ ।'
'यदि हम दीक्षित हो जाए तो मघवागणी की सेवा मे एक गाव मे भी रह सकते है और यदि किसी दूसरे गाव मे भी रहना पड़े होगा ।'
तो भी कोई कष्ट नहीं
यह उपाय कालू के हृदय म पैठ गया। आठ वर्ष के शिशु ने मा की भावना का समर्थन कर दिया । दीक्षा की पूर्व तैयारी शुरू हो गई । कालू साध्वी मृगाजी के पास तत्त्र-ज्ञान मीखने लगा । पच्चीस वोल, प्रतिक्रमण आदि जो दीक्षा में पूर्व कण्ठस्थ करने होते हैं, उस शिशु ने कण्ठस्थ कर लिए ।
एक दिन कालू ने कहा 'मा! हम साधु कव बनेंगे ?"
मा ने कहा 'हमारे आचार्य मधवागणी है । वे हमे साधु बनने की स्वीकृति देंगे, तब हम साधु बनेंगे ।'
'मघवागणी कहा है'
"
'मरदार शहर मे है ।'
'तो हम उनके पास चले ।'
स० १९४१ का चतुर्माम मघवागणी सरदार शहर मे बिता रहे थे । छोगाजी, कालू और कानकवर जी - तीनो उनके दर्शन करने वहा पहुचे | कानकवरजी छोगाजी की भानजी थी। वह भी दीक्षित होना चाहती थी। उन दिनो थली प्रदेश मे यातायात का मुख्य साधन वैलगाडी या ऊट था । ये ऊट की सवारी कर आ रहे थे । भचवागणी सरदार शहर के बाहर पवारे हुए थे | वहा तीनो ने उनके दर्शन किए और दीक्षा लेने की भावना उनके सामने रखी। प्रार्थना का पहला चरण सम्पन्न हो गया ।
कुछ दिन मघवाणी की उपासना वर होगाजी श्रीडूंगरगढ चली गई । क्षेत्र उनकी सत्रोधि के नव-कुर को मीचना मवनागणी का कर्तव्य हो गया । वे अपने कर्तव्य के प्रति जागरूक थे। समय पाकर साधु-साध्वियों को भी डू गर