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१७६ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
उन्ही अनुवन्धो को लगाया है, जिनका प्रयोग पाणिनि व्याकरण मे किया गया है। इतना आवश्यक है कि शाकटायन विवाद से बचना चाहते है। पाणिनि के प्रत्याहार सूत्रो मे कार अनुवन्ध दो वार और आया है। जिज्ञासा स्वाभाविक हे कि णकार का अनुवन्वरू५ मे द्विरुपारण क्यो किया गया। समावान में कहा गया है कि णकार के द्विरुपारण से 'व्याख्यानतो विशेषप्रतिपति नहि मदेहादलक्षणम्।" इस परिभाषा का ज्ञापन किया जाता है। शाकटायन इस चक्कर में पड़ना नहीं चाहते । वे एक कार को हटा देते है। इन्होने अनुस्वारविसर्गजिवामूलीय और उपध्मानीय का पा० र प्रत्याहार के अन्तर्गत कर दिया है ।
भिक्षुशब्दानुशासन का प्रत्याहार सूत्र अपने ढग का अलग है। इसमे हवर्ण का द्विपादान पाणिनि और शाकटायन की भॉति नहीं किया गया है । शाकटायन लिखते हैं "हकारस्य द्विरुपदेशोऽपादी पलादी च महणार्य । पाणिनि परम्परा मे हकार का दो वार पा० अट् और गल प्रत्याहार मे हकार के ग्रहण के लिये कहा जाता है, जिसका फल अhण और अधुक्षत् प्रयोग की सिद्धि मानी गई है। भिक्षुशब्दानुशासन के अनुसार "अवकुप्वनुस्वार विसर्गजिह्वामूलीयोपध्मानीय रन्तरेऽपि" २।२।७०
इस सूत्र से अव के व्यवधान मे नकार को णकार करके उपर्युक्त दोनो । प्रयोगो की सिद्धि कर दी गई है। इसलिये हकार का द्विपादान यहा अनावश्यक समझा गया।
भिक्षुशब्दानुशासन की सर्वाङ्गपूर्णता
व्याकरणसम्प्रदाय मे शब्दानुशासन शब्द केवल सूत्रपा० के लिये आता है। धातुपाठ, गणपाठ, उणादि और लिंगानुशासन किसी भी व्याकरण की पूर्णता के लिये आवश्यक होता है। सूत्रो के सहित इन चारो को मिलाकर पञ्चपाठी व्याकरण कहा जाता है। प्रचलित शाकटायन व्याकरण मे प्रथम अध्याय के द्वितीयपाद के आरम्भ मे ही श्लोकबद्ध लिंगानुशासन का पाठ है। स्त्रीलिंग, पुल्लिा तथा नपुसकलिग के सारे शब्द ६० श्लोको मे उल्लिखित है । इस व्याकरण मे धातुज रूपो की सिद्धि के लिये प्रक्रिया की विस्तृत चर्चा होने पर भी धातुपाठ नही देखा जाता। सभवत पाणिनि की धातुओ से ही तत्तद् रूपो को बनाना इन्हे अभीष्ट रहा हो। इसलिये रूपसिद्धि के लिये सूत्र तो बनाये गये पर धातुओ का निर्माण अलग से नही किया गया। इसमे गणपा० की विस्तृत चर्चा है। व्याकरण मे आये सारे गण के शब्दो का पा० ग्रन्थ के परिशिष्ट मे दिया गया है।
उणादि प्रकरण के सन्दर्भ मे शाकटायन व्याकरण मे केवल एक सूत्र उपलब्ध होता हे "उणादय" ४।३।२८०। यहाँ बहुल की अनुवृत्ति करके "उणादयो वहुलम्" ऐसा निर्देश मान लिया गया है। इससे यह बात निश्चित हो जाती है कि