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________________ भिक्षुशब्दानुशासन का तुलनात्मक अध्ययन १७५ पाणिनि व्याकरण के मूलाधार चौदह माहेश्वर सूत्र है। इन्हे अक्षर समाम्नाय, वर्ण समाम्नाय तथा प्रत्याहार सूत्र इत्यादि विभिन्न नामो से जाना जाता है। ये चौदह सूत्र इस प्रकार है अइउण् ।१। ऋलुक् ।२। एमओड्।३। ऐऔन् ।४। हयवरट् ।। लण् ।६। अभडानम् ।७। झभन ।८। पढधष् ।६। जबगडदश् ।१०। खफछठयचटत ।११। कपम् ।१२। शपसर् ।१३। हल् ।१४। जनेन्द्र व्याकरण में प्रत्याहार सूत्र नहीं है, किन्तु सूत्रपाठ मे जहाँ अनेक वर्णो का निर्देश करना अभीष्ट है, वहीं सक्षेपार्थ पाणिनि अनुशासन के प्रत्याहारो का ही प्रयोग किया गया है । जैसे अच् ११११५६ इक् १११।१७ यण १।११४५ हल् ५।४।१३८ ऐच १।१।१५ एड ११११७० अट् ५।४।१३७ झर ५।४।१३६ इन प्रत्याहारो के उल्लेख से यह स्पष्ट है कि ये सारे प्रत्याहार पाणिनि प्रत्याहार सूत्र पर आधारित है । प्रत्याहार सूत्रों के अभाव में भी प्रत्याहार बनाने के लिए "अन्त्यनेतादि" १।१।७३ यह सूत्र जनेन्द्र मे उपलब्ध होता है । इस सूत्र के द्वारा अजादि प्रत्याहारो का निर्माण तभी सभव है, जब इस ग्रन्थ मे पाणिनि सम्मत प्रत्याहार सून स्वीकृत हो। अन्यथा अन्त्यनेता दि सूत्र का अर्थ समझ मे ही नही आयेगा। __शाकटायन व्याकरण मे प्रत्याहार सून उपलब्ध है। इनका मूलाधार भी पाणिनि सून ही है । किन्तु पाणिनि सूत्रो मे कुछ वर्ण-विपर्यय करके शाकटायन ने इस प्रकार से प्रत्याहार सूत्रो को बनाया ___ अ३७ ।। ऋक् ।२। एओड् ।३। ऐऔन् ।४। हयवरल ।। जमानम् ।६। जबगडदश् ।७। झभचढधः ।८। खफ७०थट् ।। चटतन् ।१०। कपम् ।११। शपसअअ 8 क 8 प र् ।१२। हल् ।१३। भिक्षशब्दानुशासन का अपना प्रत्याहार सूत्र है। यहाँ प्रत्याहार सूत्र की सख्या तेरह या चौदह न होकर एक ही है। अनुबन्ध रहित यह एक प्रत्याहार सूत्र निम्नलिखित प्रकार से है अइउल-एएओऔ - हयवरल - अणनडम-झदधषभ - जडदाब - खफ४थचटतकप-शपस ११११४ पूर्ववर्ती व्याकरणो मे प्रत्याहार सूत्रो के अन्त मे एक-एक वर्ण ऐसे लगे हुए हैं, जिनकी इत्सज्ञा का लो५ करना पड़ता है। भिक्षुशदानुशासन गौरवग्रस्त इस पद्धति को छोडकर अनुबन्ध विनिमुक्त प्रत्याहार सून स्वीकार करता है। शाकटायन जहाँ लु को अनावश्यक समझते है और प्रत्याहारसूत्रो मे उसका उल्लेख नही करते, वही पर भिक्षुशब्दानुशासन लवर्ण को आवश्यक समझता है और प्रत्याहारसूत्रो मे उसका पाठ स्वीकार करता है। शाकटायन ने प्रत्याहार सूत्रो मे
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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