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भिक्षुशब्दानुशासन एक परिशीलन १४६
भिक्षुन्यायदर्पण वृहद्वृत्ति
इसमे १३५ न्यायो पर विस्तृत वृत्ति है । वृत्तिकार मुनिश्री चौथमलजी स्वय है । उन्होने वि० न० १९९४ के भाद्र शुक्ला ३ को इसकी वृहद्वृत्ति की रचना पूर्ण की।
वर्गखण्ड रसात्माब्दे, भाद्रमासे सिते दले । कर्मवाट्या तृतीयाया श्रीभिक्षुन्यायदर्पणे ॥१॥ चोथमल्लाभिव साधुवृहद्वृत्ति व्यधान् मुदा । श्रीमता तुलसीराम-गणीन्द्राणा प्रसादत ॥२॥
यह न्यायदर्पण ३४ पत्रो मे पूर्ण हुआ है । प्रत्येक पत्र मे दोनो ओर ३८ पक्तिया है। प्रत्येक पंक्ति मे ६५ ६७ अक्षर है । इसकी हस्तलिखित प्रतिलिपि मुनिश्री नयमलजी (टमकोर) ने वि० स० १६६५ मे आषाढ कृष्णा १२ बुधवार को छापर मे की।
भिक्षुलिगानुशासन सवृत्तिक
१५७ श्लोकात्मक यह ग्रंथ विभिन्न छदो मे आवद्ध है । इसमे २२ वृत्तो का उपयोग हुआ है। वे ये है अनुष्टुप्वृत्त, वसंततिलकावृत्त, उपजातिवृत्त, दोधकवृत्त, पज्झटिकावृत्त, विद्युन्मालावृत्त, शार्दूलविक्रीडितवृत्त, भुजङ्गप्रयातवृत्त, मृदङ्ककवृत्त, इद्रवज्रावृत्त, मदाक्रान्तावृत्त, शिखरिणीवृत्त, द्रुतविलम्बिवृत्त, मालिनीवृत्त, प्रमाणिकावृत्त, त्रोटकवृत्त, आर्यावृत्त, सग्वरावृत्त, स्रग्विणीवृत्त, इद्रवशावृत्त, हरिणीवृत्त, पथ्योपगीतिवृत्त । उसके १५८ श्लोको के रचनाकार है आशुकवि - रत्न प० रघुनदनजी शर्मा | इसमे पुल्लिंग अधिकार के २१ श्लोक, स्त्रीलिंग अधिकार के ३६ श्लोक, नपुंसक लिंग अधिकार के ३० श्लोक, स्त्रीलिंग । पुल्लिंग अधिकार के १२ श्लोक, पुनपुसक अधिकार के ३७ श्लोक, स्त्री नपुसक अधिकार के७ श्लोक, स्वयत्रिलिंगाधिकार के ६ श्लोक, परवलिंगाधिकार के ६ श्लोक हैं । इन श्लोको के वृत्तिकार हैं मुनिश्री चंदनमलजी (सिरसा) । सवृत्तिक लिंगानुशासन हस्तलिखित २३ पत्रो मे पूर्ण हुआ है । प्रत्येक पत्र मे ४० पक्तिया हैं और प्रत्येक पक्ति मे ६३-६५ अक्षर है । वि० स० १६६७ ज्येष्ठ शुक्ला को श्लोको की वृत्ति पूर्ण हुई | वृत्तिकार की प्रशस्ति के अतिम तीन श्लोक इस प्रकार हैं
तत्पादसेवा समुपाश्रयद्भि, सुधीवरेण्यै रघुनदनाह्वयै । आयुविदाचार्यवरस्तदाशु, कवित्व कृद् - रत्ननुपादधद्भि ||५|| विनिर्मित तैर्ननुभिक्षुलिंगानुशासन पद्यपरम्परासु । तदीयवृत्तिर्मुनिचन्दनेन, व्यधायि बोधाय गुरो कृपात ॥६॥