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१४८ . संस्कृत प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
४० ५क्तिया हैं । प्रत्येक पक्ति मे ५७-५६ तक अक्षर है । यह गन्थ ५७०० श्लोकपरिमाण है । इसकी हस्त-लिखित प्रतिलिपि मुनिश्री पूनमचदजी गगाहर वालो ने वि० स० १९८८ कार्तिक कृष्णा नवमी मगलवार, सिद्धियोग मे हासी नगर मे लिखी।
મિક્ષ ધાતુપીઠ
यह पातुपा० ८ पत्रो मे पूर्ण हुआ है । इसमे भ्वादिगण की १०८० धातु, अदादिगण की ८७, दिवादिगण की १४१, स्वादिगण की २६, तुदादिगण की १६२, रुवादिगण की २६, तनादिगण को ६, क्यादिगण की ६१, चुरादिगण ४०७, कुल २००२ पातुए हैं। इसकी प्रतिलिपि मुनिश्री चदनमलजी (सिरमा) ने वि० स० १९८६ फाल्गुन कृष्णा ३ को लिखकर पूर्ण की। माठ पत्रो मे अकारादि अनुकम से धातुओ की अनुक्रमणिका है। इसके प्रतिलिपि कर्जा मुनिश्री हीरालालजी (बीदासर) वाले है। भिक्षु गणपाठ
गण पाठ की हस्तलिखित प्रति तैयार नही की गई है। बृहद् वृत्ति के अन्तर्गत गणपाठ पूर्णरूप से दिया गया है । केवल मकलन अवशेप है । जव आवश्यकता होगी तब उसका संकलन कर लिया जाएगा। इसी कारण अभी उसकी प्रतिलिपि नही है।
કબદ્રિ વૃત્તિ
उणादि के चार चरण है। पहले चरण के २५० मूत्र, दूसरे चरण के २५० सूत्र, तीसरे चरण के २५० सूत्र और चौथे चरण के २५५ सूत्र हैं। कुल १००५ सूत्र है । इस ग्रन्थ मे १००५ सूत्रो ५९ वृत्ति है। इस ग्रन्थ के वृत्तिकार मुनिश्री पौयमलजी हैं । विक्रम संवत् १९८३ वैशाख कृष्णपक्ष मे चन्द्रवार को वृत्ति पूर्ण हुई । इस ग्रन्थ की हस्तलिखित प्रति ३५५त्रात्मक है। प्रत्येक पन मे ३८ पक्तिया हैं और एक पक्ति मे ७०-७३ तक अक्षर हैं। इसके प्रतिलिपि-कर्ता मुनिश्री मागीलालजी (पहुना) हैं। वि० स० १९८३ पौष कृष्णा ८ चन्द्रवार को प्रतिलिपि पूर्ण की।
भिक्षुन्यायदर्पण लधुवृत्ति ____ इसके १५पत्र है। एक पत्र मे ३८ पक्तिया हैं । एक पक्ति मे ६४ अक्षर हैं। इसमे भिक्षुशन्दानुशासन के १३५ सूत्रो की लघुवृत्ति है। इसकी हस्तलिखित प्रतिलिपि सर्वप्रथम मुनि तुलमीराम (वर्तमान नाम आचार्य तुलसी) ने विक्रम सवत् १९८६ मार्गशीर्ष शुक्ला द्वितीया को रतनगढ़ मे पूर्ण की।