________________
XV
उनमे शब्द, धातु, एक गणपाठो की वृद्धि भी की है। सस्कृत के जैन महाकाव्यो मे ऐसे अनेक नवीन शब्दो का प्रयोग भी जन कवियो ने किया है, जो व्याकरणशास्त्र की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है । प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रारम्भिक निवन्ध इस दिशा मे महत्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत कर आधुनिक युग तक सस्कृत व्याकरण शास्त्र की परम्परा को स्पष्ट करते हैं।
सस्कृत की भाति प्राकृत भाषा भी भारतीय चिन्तन की सवाहक रही है। प्राकृत भाषाओ के व्याकरण को प्रस्तुत करना अधिक कष्टसाध्य था क्योकि उसके प्रयोग मे विविधता बनी रही है । किन्तु जनाचार्यों ने इस क्षेत्र मे भी प्रतिष्ठा प्राप्त की है। लोक मे प्रचलित प्राकृत के अनेक शब्दो को व्याकरण की दृष्टि से वैकल्पिक रूपो के अन्तर्गत अनुशासित किया गया है। चण्ड, वररुचि, हेमचन्द्र, मार्कण्डेय आदि वैयाकरणो ने ईसा की दूसरी शताब्दी से लगातार १८ वी शताब्दी तक प्राकृत के व्याकरण लिखे हैं। इधर १६-२०वी शताब्दी मे भी कई विद्वानो ने प्राकृत भाषाओ का विवेचन व्याकरण की दृष्टि से किया है। होयेफर, वेबर, कावेल, याकोबी, पिशेल, डोल्पी आदि पाश्चात्य विद्वानो ने प्राकृत व्याकरणशास्त्र को प्रकाश मे लाने का अथक परिश्रम किया है। भारतीय विद्वानो मे वैद्य, घाटगे, कन, उपाध्ये, डॉ० हीरालाल जैन, सुकुमार सेन, प० वेचरदास, मुनि नथमल आदि ने प्राकृत भाषा के अनुसन्धान को गतिशील बनाया है । इस तरह भगवान महावीर के बाद आधुनिक युग तक प्राकृत शनशास्त्र पर जो कार्य हुआ है, उसका सक्षिप्त दिग्दर्शन कराना इस ग्रन्थ के निवन्धो का विषय है।
प्राकृत-अपभ्रश भाषाओ का प्रभाव जन-जीवन पर निरन्तर पडता रहा है। अत भारत की प्राय सभी आधुनिक भापाओ का अध्ययन बिना प्राकृत-अपभ्रश को जाने नही हो सकता। हमारा यह प्रयल था कि इस विषय पर विस्तृत और सोदाहरण सामग्री प्रस्तुत की जाए। किन्तु कुछ लेखकों की स्वीकृति के उपरान्त भी हमे उनके लेख नहीं मिल सके । अत ग्रन्थ का यह अश कुछ अधिक सवल नही हो सका। किन्तु प्राकृत-अपभ्रश का राजस्थानी भाषा पर कितना प्रभाव है, यह प्रस्तुत ग्रन्थ के एक लेख से अच्छी तरह प्रतिपादित हो सका है। इससे हमे इस दिशा में और अधिक चिन्तन करने की प्रेरणा मिलती है ।
जनाचार्यो ने सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और भापा-विज्ञान के क्षेत्र मे ही नही, अपितु कोश-साहित्य के निर्माण मे भी अपूर्व श्रम किया है । आगमो मे कई एकार्थक शब्दो की सूचिया प्राप्त होती हैं। व्याख्या साहित्य मे कई शब्दो की व्युत्पत्तिया दी गई हैं। इस तरह भारतीय वाङ्मय मे कोश-निर्माण की परम्परा जन-आचार्यों के ग्रन्थो से प्रारम्भ होती है । धनपाल एव हेमचन्द्र ने अपने प्राकृत-कोशो मे ऐसे शब्दो का सग्रह किया है, जो भारत के सास्कृतिक इतिहास के निर्माण मे आधारशिला का काम कर सकते है। इन शब्दसग्रहो के द्वारा जनभाषाओ के कई स्वरूप