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सुरक्षित रह सके हैं । इस परम्परा को आधुनिक युग मे जैन आचार्यों ने पल्लवित और पुष्ट किया है । अत जनकोशसाहित्य की उपलब्धिया भारतीय पाइमय के अनुसवान के लिये अपरिहार्य है। सस्कृत, प्राकृत की भाति अपभ्रश-कोण के निर्माण की नितान्त आवश्यकता भी स्पष्ट है। प्रस्तुत ग्रन्य के एतद् विषयक निवन्ध अस दिग्धतया अपनी उपयोगिता रखते है।
केवल को ग्रन्थो मे ही नहीं, अपितु अर्धमागधी व शौरसेनी साहित्य में भी अनेक ऐसे विशिष्ट शब्दो का प्रयोग हुआ है, जो कोशो मे भगृहीत होने की अपेक्षा रखते है । सस्कृत के जैन महाकाव्यो की शब्दावली सस्कृत भाषा के शब्दभण्डार की वृद्धि करती है । जैनाचार्यों ने वोलचाल की भाषा के जिन शब्दो का माहित्य मे प्रयोग किया है, वे देशी' १०६ मे अभिहित होते है। जैन साहित्य में प्रयुक्त देशी शब्द भारतीय साहित्य की बहुत बडी थाती हैं। प्रस्तुत ग्रन्य के निवन्चो ने इस विषय को चिन्तन के क्षेत्र मे लाकर वित्ममाज को उपकृत किया है. अनुसन्धान की दिशाए उजागर की है। ग्रन्थ के अग्रेजी निवन्ध भी मस्कृत प्राकृत व्याकरणशास्त्र की परम्परा को स्पष्ट करने में सहायक हुए है। इस प्रकार अन्य के विद्वान् लेखको का अध्ययन व परिश्रम अवश्य ही भारतीय साहित्य के मनोपियो को प्रभावित व लाभान्वित करेगा, ऐसी आशा की जाती है।
आभार
इस अन्य के रूप में जो कुछ हम उपस्थापित कर रहे है, वह प्राच्य विद्या के महान् उन्नायक, युगपुरुष आचार्य श्री तुलसी की प्रेरणा व कृपा का फल है। मुनि श्री नथमल जी के मार्गदर्शन के सहारे ही हम इस कार्य मे गतिशील रह सके । इन महासत्त्वसम्पन्न साधको के प्रति शाब्दिक कृतज्ञता-ज्ञापन तो नितान्त उपचार होगा। हम श्रद्धाभिनत हो उन्हें प्रणमन करते है। ग्रन्थ के सम्पादक-मण्डल के विद्वानो का भी हम सादर आभार मानते है ।
जिन सम्मान्य विद्वानो ने प्रस्तुत ग्रन्थ के लिए अपने बहुमूल्य निवन्ध लिखे हैं उनके हम हृदय से आभारी है। श्री कालगणी जन्म शताब्दी समारोह समिति, छापर ने अन्यान्य साहित्यिक कृतियो के साथ साथ इस महान् ग्रन्थ के प्रकाशन का जो निर्णय लिया, वह वास्तव मे स्तुत्य है। आचार्य श्री कालूगणी जैसे महान् विधोनायक, श्रद्धेय प्रज्ञापुरु५ की इससे अधिक क्या स्मृति हो सकती है ? जिस परम श्रुताराधक अलोकिक पुरुष ने अपने जीवन मे श्रुत का सम्यक् सप्रसार करते हुए उसके विविध अगोपागो को सवलता और सपनता दी, उन महापुरु५ के प्रति ऐसी ही श्रद्धाजलि सर्वाधिक समीचीन है।
अन्य का प्रकाशन भी अल्प समय मे सम्पन्न हुआ है । आशा है, ग्रन्थ की विषयवस्तु एवं प्रस्तुतीकरण से मुधोजन लाभान्वित हो।
१ जनवरी १९७७ राजलदेसर (राजस्थान)
मुनि दुलहराज छगनलाल शास्त्री
प्रेमसुमन जैन