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सस्कृत व्याकरणो पर जैनाचार्यों की टीकाए एक अध्ययन ११३ व्याख्यात है उनमे पाणिनीय सूत्रो की भी विशद व्याख्या देखी जाती है । पाणिनीय अपादानसशक जिन सूत्रों की आवश्यकता महाभाष्यकार आदि ने नही मानी है उन सूत्रो पर भी व्याख्या करने का कारण बताते हुए कहा गया है कि
१ यहा प्रत्याख्यान करने के उद्देश्य से ही इन सूत्रो का उपादान किया है। अथवा।
२ उन्हें स्वीकार भी किया जा सकता है क्योकि अन्य व्याकरण मे उनकी मान्यता होने से यहा उनको खण्डन करना मेरा उद्देश्य नहीं है। अर्थात् कातन्त्रोक्त ही ग्राह्य है, अन्य व्याकरणोक्त ग्राह्य नही है इस प्रकार का मेरा कोई पक्षपात नहीं है। यह भी कहा जा सकता है कि व्याकरणान्तर मे प्रवल आग्रहवश उन्हे समादृत किया गया है अत उनका प्रत्याख्यान करने के लिए द्विगुणित यत्न की बावश्यकता होगी, अत उन्हे स्वीकार कर लेना ही समीचीन है
प्रत्याख्यातुमिहाख्यात मिति तन्त्रान्तरोदितम् ।
स्वीकतुमथवाऽस्माक पक्षपाती न विद्यते ।। किञ्च
तन्नान्तरप्रणीताना सूत्राणा परमाग्रहात् ।
प्रत्याख्यानेन यत्नस्य द्वैगुण्यमुपजायते ।। ऐसा प्रतीत होता है कि यदि इस विपुलकाय ग्रन्थ का प्रकाशन हो जाए तो कातन्त्र व्याकरण का एक विस्तृत रूप सामने आ जाए। कातन्तविस्तर की कुछ टोकाएँ भी प्राप्त होती है
(१) वामदेव विद्वान्-विरचित मनोरमा, (२) श्रीकृष्णरचित वर्धमानसग्रह, (३) अज्ञातनामा आचार्य रचित कातन्त्रप्रक्रिया, (४) गोविन्ददासरचित वर्धमानानुसारिणी प्रक्रिया, तथा (५) रघुनाथदास-रचित वर्धमानप्रकाश ।
८ कातन्त्रवृत्तिपन्जिका
आचार्य त्रिलोचनदास द्वारा प्रणीत यह व्याख्या वड्गाक्षरो मे मुद्रित है और प्राय सभी सूत्रों पर प्राप्त होती है। इसकी रचना को उद्देश्य अन्यकार ने स्वयं ग्रन्थारम्भ मे बताया है, तदनुसार कातन्त्रव्याकरण पर दुर्गसिंह द्वारा रचित एक प्रामाणिक वृत्ति मे प्रयुक्त कठिन या अस्पष्टार्यक पदो को सरल या स्पष्ट करने के उद्देश्य से इसकी रचना की गई थी। कठिन या अस्पष्टायक पदो के व्याख्यान की आवश्यकता मन्दबुद्धि वालो को भी विषय के सम्यक् अवबोधार्थ होती है
પ્રખ્ય સર્વાતંર સર્વઃ સર્વવિનમ્ | सवाय सर्वग सर्व सर्वदेवनमस्कृतम् ।। दुसिंहोक्तकातन्त्रवृत्तिदुर्गपदान्यहम् । विवृणोमि ययाप्रशमशानहेतुना।