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११४ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
व्याख्या के अध्ययन से ऐसा लगता है कि ग्रन्थकार ने न केवल दुसिंहोक्त वृत्ति मे ही कठिन या अस्पष्टार्थक शब्दो की ही व्याख्या की है, किन्तु उन्होंने सूत्रनिदिष्ट विषय को पूर्णत समझाने के लिए अनुक्त विषयो का भी समावेश किया है और अनेकन अपने मत के समर्थन मे अन्य अन्यकारो के भी पत्रनो को उद्धृत किया है। इनके कुछ विशेप विचार इस प्रकार है---
१ नमस्कारविषयक । इसमें कहा गया है कि अभिप्रेत विषय की सिद्धि केवल नमस्कारमानसाध्य नही होती किन्तु कभी यागादिसाध्य तथा नमस्कार साध्य होती है।
(मङ्गलाचरण) २ मङ्गलार्थक सिद्ध शब्द का विवेचन । “सिट्टो वर्णसमाम्नाय" इस प्रथम सूत्र की व्याख्या मे सिद्ध' शब्द के नित्य, निप्पन्न तथा प्रसिद्ध अर्थो के अतिरिक्त भी कुछ महत्त्वपूर्ण विचार किया गया है। कातन्तव्याकरण मे आदि, मध्य तथा अन्त मे किए गए मङ्गलार्यक पदो की योजना स्५८८ की है (१११११)।
३ 'आदि' शब्द के चार अर्यो की व्याख्या आपिशलीय मतानुसार की गई
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तथा चापिलीया पठन्ति, सामीप्येऽय व्यवस्थाया प्रकारेऽवयवे तथा।
चतुवयपु मेधावी आदि शब्दं तु लक्षयेत् ॥ (१।१८)। ४ अनुनासिक मे 'अनु' शब्द की योजना का तात्पर्य । इसकी व्याख्या मे 'अनुनासिक' सना को पूर्वाचार्यप्रणीत तथा अन्वर्य कहा गया है (१।१।१३) ।
५ 'अनुस्वार, विसर्जनीय' सजाओ के क्रम का औचित्य । इसमें बताया गया है कि स्वरसम्बद्ध होने के कारण यद्यपि इन सजाओ का निर्देष सन्ध्यक्षर सज्ञा के ही अनन्तर करना चाहिए था, तथापि अप्रवान एव स्वर-यजनोभय से सब होने के कारण इनका पा० अन्त मे किया गया है। सूत्र निदिष्ट होने के कारण अनुस्वार-विसर्जनीय को भी कातन्त्र व्याकरण मे योगवाह माना जाता है, पाणिनीय व्याकरण की तरह अयोगवाहनही (१११११६)।
६ आपिशनीय मतानुसार आगम आदि की परिभाषा । तथा चापिशलीया पठन्ति ,
आगमोऽनुपातेन विकारचोपमर्दनात् । ___आदेशस्तु प्रसङ्गेन लोप सर्वापकपणात् ।। (२१११६) ।
७ नौपचारिक आधार की अयुक्तता वताना 'अड् गुल्यग्रे करिशतम्' आदि स्यलो मे कुछ आचार्य औपचारिक आधार मानते है, परन्तु वस्तुत अङ्गुलि के अग्रमाग का विषय ही करिशत है अत यहा औपश्ले पिक आधार मानना ही सगत है (२१४१११),