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११२ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
३ यानि, शुभानि, रणानि' आदि स्थाधन्त पद तो प्रसिद्ध है परन्तु त्याद्यन्त प्रसिद्ध नही । इन त्याद्यन्त पदो की सिद्धि 'या शुभ, रण' धातुओ से 'आनि' प्रत्यय होने पर बताई गई है।
इसी प्रकार अनेक शब्दो की साधनिका मे प्राय सरल भाषा तथा सरल शैली का व्यवहार किया गया है, जिसे सवद्ध स्थलो मे ही देखा जा सकता है। सरलता के लिए इसमे अनेक ग्रन्यो व अन्यकारो के मतो को नहीं दिखाया गया है।
વાન્નિત વૂહ-સિદ્ધાન્તમુદ્ર તથા વનેલર જોશ વવ વવખ્ય પ્રાપ્ત होता है।
७. कातन्त्रविस्तर
वर्धमान-विरचित इस विस्तृत टीका का कारक भागीय कुछ अश मजूषा पतिका (वर्ष १२ अङ्क ६) मे प्रकाशित है। इसके अनेक हस्तलेख उत्कलाक्षरी मे भुवनेश्वर के अभिलेखागार मे संगृहीत है ) । राजस्थान मे संस्कृत साहित्य की खोज (पृ० ३२) के लेखक श्रीधर रामकृष्ण भण्डारकर के अनुसार जैसलमेर मे भी इसकी हस्तलिखित प्रति है । जनसाहित्य का वृहद् इतिहास, भाग ५, पृ० ५२ पर मारा तथा चूरू मे भी इसके हस्तलेख बताए गए है। ग्रन्थकार की प्रतिज्ञा के अनुसार इसके सन्धि तथा नाम अध्यायो मे उन सभी शब्दो की सिद्धि बताने का प्रयास किया गया है, जिनका प्रयोग शिष्टो ने लक्ष्यग्रन्थो मे किया है
महेश्वर नमस्कृत्य कुमार तदनन्तरम् । सुगम क्रियतेऽस्माभिरय कातन्सविस्तर । अभियोगपरा पूर्व भापाया यद् वभापिरे।
प्रायेण तदिहास्भाभि परित्यक्त न किचन ।। कृभागीय व्याख्यान मे ग्रन्थकार ने कहा है कि सूत्रकार शर्ववर्मा द्वारा जिनकी सर्वथा उपेक्षा की गई तथा कात्यायन ने भी जिन पर विचार नहीं किया, उन सभी शब्दो को यहा उदाहरण के रूप में दिया गया है। अन्त मे ग्रन्थकार ने यह भी बताया है कि यद्यपि अपने प्रशसनीय गुणो के कारण यह शास्त्र अनेकन प्रचलित है प्रचुर प्रचार है, तथापि पिताजी के मुख से सुने जाने के कारण या उनके या उनके आदेश से मैंने इस अन्य की रचना की है
उपेक्षित सूत्रकृता सुदूर कात्यायनेनापि न चिन्तित यत् । सक्षिप्तभापागतमन लक्ष्यसमस्तमस्मामिरुदाहृत तत् ।।
सुप्रचार शास्त्र यद्यपि सुगुणरिह।
પિતૃવવત્તાનું વાવેતરન્જિવિત વિદુપા મયી | मजूपा पत्रिका मे कारकप्रकरणीय अपादन तथा सम्प्रदान-मजक जो सूत्र