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सस्कृत व्याकरणो पर जैनाचार्यों की टीकाए एक अध्ययन १११
स्वस्थेतरस्य च सुबोधविवर्धनार्थ
रित्वत्थ ममात्र सफलो लिखनप्रयास ॥३॥ टीका मे प्रासङ्गिक मूलातिरिक्त कुछ शब्दो की सिद्धि ग्रन्थकार ने स्वयं भी वताई। ग्रन्थ के अन्त मे चार कारिकाओ द्वारा अप्रसिद्ध त्याद्यन्त रूपी को भी अपनी ओर से बताया गया है.---'इति रूपमनुक्तमपि प्रसगादिह लिखितम्'। 'अन्येऽपिकेचिद् विभ्रमप्रयोगालिख्यन्ते ।।
प्रमाण के लिए क्षेमेन्द्र, हेमचन्द्र, अभिधानकोश, एकाक्षरनिघण्टु आदि के वचनो को अनेकन उद्धृत किया गया है । इसके अनुशीलन से ऐसा कहा जा सकता है कि प्रतिज्ञानुसार ग्रन्थकार ने अपने बुद्धिकोशल का पर्याप्त परिचय दिया है। ६ कातन्त्र विभ्रमावचूणि
नागर नीलकण्ठ के पुत्र गोपालाचार्य ने स० १७६३ के दक्षिणायन-पोषमास मे इसकी रचना की थी। बालको की हितकामना, अपने एव दूसरो के ज्ञानसंवर्धन के लिए यह ग्रन्थ लिखा गया था। इसके हस्तलेख जोधपुर, बीकानेर, अहमदाबाद आदि स्थानो मे संगृहीत हैं। हस्तलेखो के अवलोकन से ऐसा विदित होता है कि इन्होने केवल मूल की २१ कारिकाओ पर ही अपनी व्याख्या रची है। प्रक्षिप्त १० कारिकाओ पर इनकी टीका नही देखी जाती। ग्रन्थकार ने स्वरचित टीका को विशुद्ध, रम्य तथा सुगम बताया है। ग्रन्थरचना के काल आदि का परिचय इस प्रकार है--
संवद्रामरसाद्रिभू (१७६३) परिमिते वर्षायने दक्षिणे, पौष मासि शुचौ तिथिप्रतिपदि प्राइ भौमवारऽकरोत् । श्रीमन्नागरनीलकण्ठतनयो नाम्ना तु गोपालक
टीकामस्य विशुद्ध रम्यसुगमा काव्यस्य दुर्गस्य वै ॥ इस कातन्त्रविभ्रम को यहा काव्य कहा गया है, सम्भवत विशेष अर्थों मे प्रयुक्त काव्यशास्त्रीय कुछ शब्दो की चर्चा होने से इसे काव्य की सज्ञा टीकाकार ने दी हो। टीका की सुगमता के बोधक कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं
१ अग्निभ्य' ५८ को प्रथमा विभक्त्यन्त सिद्ध करने के सन्दर्भ मे बताया है, कि भयार्यक 'भ्यस्' धातु का विवन्त रू५ 'भ्य' होता है, अत 'अग्नि से होने वाला भय' इस अर्य का वाचक प्रथमाविभक्त्यन्त पद 'अग्निभ्य' ५ञ्चमी तत्पुरुष समास से निष्पन्न होगा। विकल्प मे भयार्यक 'भी' शब्द का प्रथमा बहुवचन 'भ्य ' बताकर 'अग्निभ्य' पद को सावना दिखाई गई है। (कारिका २)।
२ 'भवेताम्' शब्द को षष्ठी वहुवचनान्त इस प्रकार सिद्ध किया गया है 'इण् धातु का विवन्त रूप 'इत्' होता है । भव संसार को प्राप्त करने वाले "भवत' कहे जाएंगे, उससे पष्ठी बहुवचनान्त रूप 'भवेताम्' निष्पन्न होगा (कारिका ३)।