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आचार्य श्री तुलसी के शासनकाल मे संस्कृत की तरह प्राकृत भाषा के अध्ययन जोर दिया गया ।
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एक प्रभाग हैं वि० स० २०११ का चतुर्मास बम्बई मे था । पेनिस्लेविया ( अमेरिका ) यूनिवर्सटी के संस्कृत-विभागाध्यक्ष डॉ० नॉरमन ब्राउन आचार्य श्री के पास आए। वे संस्कृत और प्राकृत भाषा के प्रकांड पंडित थे । साधुसाध्वियों के संस्कृत अध्ययन से वे बहुत प्रभावित हुए। उन्होने आचार्य श्री से "महाराज प्रार्थना के स्वर मे कहा / संस्कृत मे बहुत कुछ सुना है । अब एक इच्छा है कि मैं भगवान् महावीर की भाषा प्राकृत मे कुछ सुनू ।' आचार्य श्री ने उनकी तीव्र उत्कठा को देखा और मुनि नथमल जी को प्राकृत मे प्रवचन देने का निर्देश दिया। मुनि श्री ने लगभग बीस मिनट तक प्राकृत भाषा मे धाराप्रवाह रूप से बोलते हुए परिपद् को आश्चर्यचकित कर दिया । प्राकृत भाषा मे प्रवचन सुनतेसुनते प्राच्य विद्वान् ब्राउन पंविभोर हो उठे और उनकी आखो से हर्प के आसू टपक पडे । उन्होने कहा "आज मेरी चिर अभिलापा पूर्ण हुई । मैं कृतकृत्य हो गया ।'
श्रुतवर आचार्य श्री तुलसी ने जैन आगमो के सपादन तथा विवेचन का कार्य अपने हाथ में लिया । योजना वनी । याचार्य श्री वाचना प्रमुख रहे और मुनि नथमल जी सपादक और विवेचक | उनके निर्देशन मे अनेक साधु-साध्वी इस कार्य मे जुटे | कार्य गतिशील हुआ और दो दशको के इस कार्यकाल मे अनेक आगम सुसपादित और विवेचित होकर जनता के सामने आए । विवर्ग ने उनकी भूरिभूरि प्रशंसा की और वे ग्रन्थ आगम सपादन के मेरुदंड बन गए। इस योजना के अतर्गत भगवान् महावीर की पच्चीसवी निर्माण-शताब्दी पर ग्यारह अगो का सुसपादित संस्करण 'अगुसुत्ताणि' तीन भाग के रूप मे प्रस्तुत हुआ वह भी अपने-आप मे एक अमूल्य अर्ध्य था । आगम सपादन के कार्य ने अनेक साधुसाध्वियों को प्राकृत भाषा के अध्ययन की ओर अग्रसर किया । अनेक साधु-साध्वी इसमे निष्णात हुए, लेखक और वक्ता वने ।
श्री चन्दन मुनि ने प्राकृत भाषा मे 'ण्णीइधम्मसुत्तीओ', 'रयणवालकहा' तथा 'जयचरिअ' ये तीन ग्रन्थ लिखे । अन्यान्य साधु-साध्वियों ने भी प्राकृत मे स्फुट रचनाए की । इतना ही नही, प्राकृत के व्याकरण का भी नव सर्जन हुआ । प्रौढ विद्वान् एव चिन्तक मुनि श्री नयमल जी ने तुलसीमजरी के नाम से सिद्ध हेमशब्दानुशासन के अष्टम अध्याय के आधार पर एक प्रक्रिया -ग्रन्थ की रचना की, जो मागधी, अर्धमागधी, शौरसेनी, पैशाची, चूलिका पैशाची, अपभ्रंश और मार्ष प्राकृत का एक सुन्दर और सुगम व्याकरण है ।
संस्कृत व्याकरण के विकास की शृंखला मे मुनि श्री सोहनलाल जी (चूरू) द्वारा रचित तुलसीप्रभा नामक प्रक्रिया-ग्रन्थ से एक कडी और जुड जाती है । मुनि