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मे यह व्याकरण का एक अभिनव पीठ (New school of grammar) प्रतिष्ठित हुआ। इस महत्वपूर्ण ग्रन्य को सुसम्पादित रूप में शीघ्र प्रकाशित करने की योजना है। ___सस्कृत का व्याकरण अन्यान्य भाषाओ की तरह साधारणतया भाषा के शिक्षण या वाक्य-रचना-प्रकार-बोधन का मात्र माध्यम नहीं है। वह तो स्वय अपने आप में एक सर्वथा परिपूर्ण शास्त्र का रूप लिए हुए है। तभी तो कभी उसके लिए यह जनश्रुति प्रचलित हुई 'द्वादशभिवषयाकरणमधीयते' अर्थात् बारह वर्ष मे व्याकरण का अध्ययन पूर्ण होता है । कहने का आशय यह है कि सस्कृत व्याकरण मे निरन्तर विकास होता गया। टीका, व्याख्या, वृत्ति, वातिक, पजिका, फक्किका, प्रक्रिया आदि के रूप मे विविध प्रकार का साहित्य निर्मित होता रहा। मुनि श्री चौथमल्लजी ने भी अपने शब्दानुशासन की एक सक्षिप्त प्रक्रिया तयार की, जिसका उन्होने अपने श्रद्धेय गुरुवर्य के नाम पर 'कालुकौमुदी' नाम रखा । यह कहना अतिरजन नही है कि आचार्य श्री कालूगणी के शासनकाल मे उनके अन्तेवासी मुनि श्री चौयमल्लजी द्वारा प्रणीत भिक्षुशब्दानुशासन संस्कृत के व्याकरण-वाड्मय को एक अप्रतिम देन है। भिक्षुशब्दानुशासन पर एक लघुवृत्ति की भी रचना हुई, जिसके लेखक भ्रातृदय श्री धनमुनि एव श्री चन्दन मुनि है। आचार्य श्री कालूगणी के समय मे और भी अनेक विषयो पर संस्कृत मे नूतन रचनाए हुई।
आचार्य श्री कालूगणी के दिवगमन के पश्चात् उनके उत्तराधिकारी तरापथ के वर्तमान सघाधिपति, युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी ने सस्कृत विद्या के इस विकास को न केवल वनाए रखा वरन् उसे और अधिक गतिशील किया है। याचार्य श्री तुलसी को बचपन से ही सस्कृत से अनन्य अनुराग है। किशोरावस्या से ही उनको सस्कृत के सहस्रो श्लोक कस्य हैं । वे व्याकरण, न्याय, काव्य, कोश
आदि अनेक विषयो के मार्मिक अध्येता हैं। यह उनके द्वारा रचित जनसिद्धान्तदीपिका, भिक्षुन्यायकणिका, मनोनुशासन जैसे प्रौढ ग्रन्थो से प्रकट है । आचार्य-पद का उत्तरदायित्व अपने पर आने से पूर्व तो वे अपना अधिकाश समय शास्त्र-परिशीलन मे लगाते ही थे, अब भी आचार्य-पद के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्वो का वहन करते हुए भी शास्त्र-पर्यवेक्षण मे वे समय देते है। उन्होने स्वयं तो सस्कृत विद्या के अगोपागो का अत्यन्त मार्मिक अध्ययन कर अनेक विषयो मे पारगामिता प्राप्त की ही, अनेक साधुओ एव साध्वियो को भी तैयार किया। आज तेरापथ मे सस्कृत के इतने -4कोटि के जो विद्वान् दिखाई देते है, इसका वीज-उप्ता के रूप मे आचार्य श्री कालूगणी को तथा सिंचक और सवर्धक के रूप मे आचार्य श्री तुलसी को बहुत बडा श्रेय है ।